श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)
शुकदेव जी ने जिस लीला का वर्णन किया है वह भगवान और गोपियों की लीला है। दूलह-दुलहिन की लीला दो समान रसिकों का रस-विहार है। यह दोनों केवल रसिक हैं और कुछ नहीं। भगवत्ता और गोपीत्व सहज प्रेम की दृष्टि से विजातीय तत्व हैं। इनके आ जाने से प्रेम और उसका विलास अपनी स्वाभाविक स्थिति में नहीं रह पाते। दुलह-दुलहिन के रास-विलास को हितप्रभु ने ‘सहजल प्रेमोत्सव’ कहा है। सहज प्रेम में प्रेम-भिन्न अन्य किसी वस्तु का स्पर्श नहीं होता। देश, काल, पात्र आदि की मर्यादा में इस प्रेम से बहुत इस तरफ रह जाती हैं। यह नेम-शून्य और सर्वथा निष्काम होता है। ‘सहज-प्रेमोत्सव’ का परिचय देते हुए हितप्रभु ने बतलाया है कि इस उत्सव में न तो उपकार की अपेक्षा है और न स्तुति की; यहाँ न तो किसी प्रकार का अपराध है और न किसी प्रकार का संभ्रम[1]। यहाँ तो केवल एक अनिर्वचनीय लावण्य का चमत्कार है, सर्वदा एक-सा रहने वाला नवीन कैशोर-वय है, कहीं न दिखलाई देने वाला अद्भुत रूप है, परमाश्चर्यमय केलि-कला विलास-चातुर्य है। सा लावण्य चमत्कृति र्नववयो रूपं च तन्मोहनं। सेवक जी ने श्रीहित हरिवंश द्वारा दर्शित विहार का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा है ‘इस विहार में नित्य-नूतन सुख-चैन के आश्रय श्याम-श्यामा स्वयं अपनी ही प्रीति के वश में रहते हैं और लोक-वेद की मर्यादा तोड़कर रस के रंग में क्रीड़ा करते रहते हैं। उनकी जैसी रुचि होती है वैसे सुरत-प्रसंग[2]वे निर्भय होकर करते हैं। उन के ललित अंगों की चंचल भाव-भंगियों को देख कर श्रृंगार की कलायें लज्जित होती हैं। श्री हित हरिवंश का यह विहार अद्भुत है। रसिक गण इसको देखकर जीते हैं और इसका विस्तार, श्रवण और गान करके क्षण-क्षण में लीलारस का पान करते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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