हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 108

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

शुकदेव जी ने जिस लीला का वर्णन किया है वह भगवान और गोपियों की लीला है। दूलह-दुलहिन की लीला दो समान रसिकों का रस-विहार है। यह दोनों केवल रसिक हैं और कुछ नहीं। भगवत्ता और गोपीत्‍व सहज प्रेम की दृष्टि से विजातीय तत्‍व हैं। इनके आ जाने से प्रेम और उसका विलास अपनी स्‍वाभाविक स्थिति में नहीं रह पाते।

दुलह-दुलहिन के रास-विलास को हितप्रभु ने ‘सहजल प्रेमोत्‍सव’ कहा है। सहज प्रेम में प्रेम-भिन्न अन्‍य किसी वस्‍तु का स्‍पर्श नहीं होता। देश, काल, पात्र आदि की मर्यादा में इस प्रेम से बहुत इस तरफ रह जाती हैं। यह नेम-शून्‍य और सर्वथा निष्‍काम होता है। ‘स‍हज-प्रेमोत्‍सव’ का परिचय देते हुए हितप्रभु ने बतलाया है कि इस उत्‍सव में न तो उपकार की अपेक्षा है और न स्‍तुति की; यहाँ न तो किसी प्रकार का अपराध है और न किसी प्रकार का संभ्रम[1]। यहाँ तो केवल एक अनिर्वचनीय लावण्‍य का चमत्‍कार है, सर्वदा एक-सा रहने वाला नवीन कैशोर-वय है, कहीं न दिखलाई देने वाला अद्भुत रूप है, परमाश्चर्यमय केलि-कला विलास-चातुर्य है।

सा लावण्‍य चमत्‍कृति र्नववयो रूपं च तन्‍मोहनं।
तत्तत्‍केलि-कला-विलास-लहरी-चातुर्यमाश्चर्यभ्।।
नो किंकित्‍कृतमेव यत्र न नुति र्नागो न वा संभ्रमो।
राधा माधवयो: सकोऽपि सहज: प्रेमोत्‍सव: पातुव:।।

सेवक जी ने श्रीहित हरिवंश द्वारा दर्शित विहार का स्‍वरूप वर्णन करते हुए कहा है ‘इस विहार में नित्‍य-नूतन सुख-चैन के आश्रय श्‍याम-श्‍यामा स्‍वयं अपनी ही प्रीति के वश में रहते हैं और लोक-वेद की मर्यादा तोड़कर रस के रंग में क्रीड़ा करते रहते हैं। उनकी जैसी रुचि होती है वैसे सुरत-प्रसंग[2]वे निर्भय होकर करते हैं। उन के ललित अंगों की चंचल भाव-भंगियों को देख कर श्रृंगार की कलायें लज्जित होती हैं। श्री हित हरिवंश का यह विहार अद्भुत है। रसिक गण इसको देखकर जीते हैं और इसका विस्‍तार, श्रवण और गान करके क्षण-क्षण में लीलारस का पान करते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हड़बड़ाहट
  2. श्रृंगार-केलि

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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