सहज गीता -रामसुखदास पृ. 86

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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सोलहवाँ अध्याय

(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य ‘क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए’- इन दोनों को नहीं जानते। उनमें न तो बाहर की शुद्धि होती है, न अच्छा आचरण होता है और न सत्य का पालन ही होता है। वे कहा करते हैं कि संसार में यज्ञ, दान, तप, तीर्थ व्रत आदि सब धर्म-कर्म झूठे हैं। इस संसार में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि की कोई मर्यादा नहीं है। इस संसार को रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है, अपितु यह अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। इसलिए इस संसार की उत्पत्ति का हेतु काम ही है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं है। इस प्रकार की नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेने वाले वे आसुरी मनुष्य आत्मा की सत्ता को नहीं मानते। पारमार्थिक विषय में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। ईश्वर और परलोक का भय न होने से उनके द्वारा हत्या आदि बड़े-बड़े भयानक कर्म होते हैं। वे दूसरों का नुकसान करने में ही लगे रहते हैं।
उनकी सामर्थ्य दूसरों का नाश करने के लिए ही होती है। वे कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर सदा दम्भ, अभिमान और नशे में चूर रहते हैं। वे ऐसे व्रत-नियम धारण करते हैं, जिनसे दूसरों का नुकसान हो। तामसी बुद्धि के कारण वे अनेक दुराग्रहों को पकड़े रहते हैं। उनके भीतर ऐसी चिन्ताएँ रहती हैं, जो मरने तक नहीं छूटतीं। वे रात-दिन पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहते हैं। उनका यह निश्चय होता है कि इस संसार में सुख भोगने और संग्रह करने के सिवाय और कुछ नहीं है; जो कुछ है, यही है। वे सैकड़ों आशाओं की फाँसियों से बँधे रहते हैं। उनकी आशाएँ कभी पूरी होती ही नहीं। उनका जीवन अपनी कामनापूर्ति करने के लिए और क्रोधपूर्वक दूसरों को कष्ट देने के लिए ही होता है। केवल भोग भोगना और धन इकट्ठा करना ही उनका उद्देश्य होता है, और धन इकट्ठा करना ही उनका उद्देश्य होता है, और इसके लिए वे बेईमानी, विश्वासघात, चोरी आदि अनेक तरह के अन्याय, पाप किया करते हैं।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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