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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य ‘क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए’- इन दोनों को नहीं जानते। उनमें न तो बाहर की शुद्धि होती है, न अच्छा आचरण होता है और न सत्य का पालन ही होता है। वे कहा करते हैं कि संसार में यज्ञ, दान, तप, तीर्थ व्रत आदि सब धर्म-कर्म झूठे हैं। इस संसार में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि की कोई मर्यादा नहीं है। इस संसार को रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है, अपितु यह अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। इसलिए इस संसार की उत्पत्ति का हेतु काम ही है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं है। इस प्रकार की नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेने वाले वे आसुरी मनुष्य आत्मा की सत्ता को नहीं मानते। पारमार्थिक विषय में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। ईश्वर और परलोक का भय न होने से उनके द्वारा हत्या आदि बड़े-बड़े भयानक कर्म होते हैं। वे दूसरों का नुकसान करने में ही लगे रहते हैं। |
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