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सोलहवाँ अध्याय
(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य लोभ, क्रोध और अभिमान को लेकर मन-ही-मन सोचा करते हैं कि इतनी वस्तुएँ तो हमने अपनी चतुराई चालाकी से प्राप्त कर ली हैं, अब इतनी (दहेज आदि में) और प्राप्त कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास पहले से है ही, इतना धन और हो जाएगा। वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया है, दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं, हमारी बराबरी कोई नहीं कर सकता। हम भोग भोगने वाले हैं। हम सिद्ध हैं, इसलिए हम जो चाहें, वह कर सकते हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं। हमारे पास बहुत धन है। बहुत से मनुष्य हमारा साथ देने वाले हैं। हमारे समान दूसरा कौन हो सकता है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे।
इस प्रकार आसुरी मनुष्य अज्ञान से मोहित होकर तरह-तरह के मनोरथ किया करते हैं। कामनाओं के कारण जिनका चित्त भटकता रहता है, जो मोहरूपी जाल में उलझे रहते हैं, और जो भोग तथा संग्रह में अत्यंत आसक्त रहते हैं, ऐसे आसुर मनुष्य मरने के बाद भयंकर, घोर यातना वाले नरकों में गिरते हैं।
आसुरी मनुष्य अपने-आपको बड़ा श्रेष्ठ समझते हैं कि हमारे समान कोई नहीं है; अतः हमारा आदर होना ही चाहिए। उनमें बहुत ज्यादा ऐंठ अकड़ रहती है। वे सदा धन और मान के नशे में चूर रहते हैं। वे यज्ञ, दान, तप आदि कोई शुभ कर्म भी करते हैं तो विधिपूर्वक नहीं करते, अपितु लोगों को दिखाने के लिए तथा अपनी प्रसिद्धि के लिए ही करते हैं। वे जो भी काम करते हैं, उसे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोधपूर्वक ही करते हैं। ऐसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में रहने वाले मुझ अन्तर्यामी के साथ वैर रखते हैं, और मेरे तथा दूसरों के गुणों में भी दोष देखते हैं। उन्हें संसार में कोई अच्छा आदमी दीखता ही नहीं! उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले और मनुष्यों में महान् नीच तथा अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार कुत्ते, गधे, साँप, बिच्छू आदि आसुरी योनियों में गिराता हूँ, जिससे वे अपने पापों का फल भोगकर शुद्ध हो जायँ।
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