सहज गीता -रामसुखदास पृ. 16

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

यह नियम है कि अपना आग्रह रखने से श्रोता वक्ता की बातों का आशय भलीभाँति नहीं समझ पाता। अर्जुन भी अपना (युद्ध न करने का) आग्रह रखने से भगवान् के वचनों का आशय भलीभाँति नहीं समझ सके। इसलिए वे भगवान् से पूछते हैं- ‘हे जनार्दन! यदि आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे केशव! मुझे ज्ञान में न लगाकर युद्ध-जैसे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? आपके मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि मोहित हो रही है, जिससे मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि मुझे कर्म करने चाहिये या कर्म छोड़कर ज्ञान का आश्रय लेना चाहिए। अतः आप निश्चय करके मेरे लिए एक बात कहिए, जिससे मेरा कल्याण हो जाय।’
श्री भगवान् बोले- ‘हे निष्पाप अर्जुन! मनुष्यों के लिए मैंने दो प्रकार के लौकिक साधन बताये हैं- ज्ञानयोग और कर्मयोग (भक्तियोग अलौकिक साधन है)। इन दोनों ही साधनों में कर्म करना आवश्यक है; क्योंकि कर्मों का त्याग करने मात्र से साधक कर्म बंधन से नहीं छूट सकता। वास्तव में मनुष्य कर्मों का स्वरूप से त्याग कर भी नहीं सकता; क्योंकि शरीर में अहंता ममता (मैं-मेरापन) रहते हुए कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। जो मूर्ख मनुष्य बाहर से तो अपनी इन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर अपने को क्रियारहित मान लेता है, पर मनसे भोगों का चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी कहलाता है। तात्पर्य है कि बाहर से कर्मों का त्याग करने पर कोई कर्मरहित नहीं हो सकता। परंतु हे अर्जुन! जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में करके निष्कामभाव से कर्तव्य कर्म का पालन करता है, वह (कर्मयोगी) श्रेष्ठ है। इसलिए तुम अपने वर्ण आश्रम आदि के अनुसार अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करो; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तो तुम्हारा शरीर-निर्वाह भी नहीं होगा।’


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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