सहज गीता -रामसुखदास पृ. 84

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

Prev.png

सोलहवाँ अध्याय

(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)

जो मनुष्य भगवान् के सम्मुख हैं, जिनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति है, वे ‘दैवी संपत्तिवाले’[1] होते हैं और जो मनुष्य संसार के सम्मुख हैं, जिनका उद्देश्य भोग भोगना तथा संग्रह करना है, वे ‘आसुरी संपत्तिवाले’[2] होते हैं।
दोनों के लक्षणों का वर्णन करते हुए श्रीभगवान् बोले-

  1. भय का बिल्कुल न होना,
  2. अंतःकरण की शुद्धि,
  3. ज्ञान प्राप्ति के लिए योग (समता)- में दृढ़ स्थिति,
  4. सात्त्विक दान,
  5. इंद्रियों का वश में होना,
  6. यज्ञ,
  7. स्वाध्याय,
  8. कर्तव्य- पालन के लिए कष्ट सहना,
  9. शरीर- मन- वाणी की सरलता,
  10. अहिंसा (तन-मन-वाणी से किसी को दुख न देना),
  11. सत्य बोलना,
  12. क्रोध न करना,
  13. संसार की कामना का त्याग,
  14. अंतःकरण में राग-द्वेष से होने वाली हलचल न होना,
  15. चुगली न करना,
  16. सब प्राणियों पर दया करना,
  17. सांसारिक भोगों में मन न ललचाना,
  18. हृदय का कोमल होना,
  19. शास्त्र और लोक-मर्यादा के विरुद्ध काम करने में लज्जा,
  20. चपलता (उतावलापन) न होना,
  21. तेज (प्रभाव),
  22. क्षमा अर्थात् अपने में दंड देने की सामर्थ्य होने पर भी अपराधी को माफ कर देना,
  23. हरेक परिस्थिति में धैर्य रखना,
  24. शरीर को शुद्ध रखना,
  25. बदला लेने की भावना न होना, और
  26. दूसरे से मान-आदर न चाहना।

हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी संपत्तिवाले मनुष्यों के लक्षण हैं।

Next.png

संबंधित लेख

सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. ‘देव’ नाम भगवान् का है; अतः भगवान् की प्राप्ति के लिए जितने भी सद्गुण सदाचार आदि साधन हैं, वे सब ‘दैवी संपत्ति’ कहलाते हैं।
  2. ‘असु’ नाम प्राणों का है; अतः जिनका अपने प्राणों में मोह है, जो अपने प्राण का पोषण करने में अर्थात् भोगों में ही लगे रहते हैं, वे ‘असुर’ कहलाते हैं, और उनके गुण ‘आसुरी संपत्ति’ कहलाते हैं। भगवान् का ही अंश होने से जीव में ‘दैवी संपत्ति’ स्वतः स्वाभाविक है; पर ‘आसुरी संपत्ति’ शरीरादि नाशवान् पदार्थों के संग से आती है।

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः