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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)जो मनुष्य भगवान् के सम्मुख हैं, जिनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति है, वे ‘दैवी संपत्तिवाले’[1] होते हैं और जो मनुष्य संसार के सम्मुख हैं, जिनका उद्देश्य भोग भोगना तथा संग्रह करना है, वे ‘आसुरी संपत्तिवाले’[2] होते हैं।
हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी संपत्तिवाले मनुष्यों के लक्षण हैं। |
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ ‘देव’ नाम भगवान् का है; अतः भगवान् की प्राप्ति के लिए जितने भी सद्गुण सदाचार आदि साधन हैं, वे सब ‘दैवी संपत्ति’ कहलाते हैं।
- ↑ ‘असु’ नाम प्राणों का है; अतः जिनका अपने प्राणों में मोह है, जो अपने प्राण का पोषण करने में अर्थात् भोगों में ही लगे रहते हैं, वे ‘असुर’ कहलाते हैं, और उनके गुण ‘आसुरी संपत्ति’ कहलाते हैं। भगवान् का ही अंश होने से जीव में ‘दैवी संपत्ति’ स्वतः स्वाभाविक है; पर ‘आसुरी संपत्ति’ शरीरादि नाशवान् पदार्थों के संग से आती है।
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