सहज गीता -रामसुखदास पृ. 22

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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चौथा अध्याय

(ज्ञान कर्म संन्यास योग)

श्रीभगवान् बोले- मैंने तुम्हें जिस कर्मयोग का उपदेश दिया है, वह कोई नया नहीं है, अपितु अनादि है। इस अविनाशी कर्मयोग का उपदेश मैंने सर्वप्रथम सूर्य को दिया था। फिर सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इसका उपदेश दिया। इन सभी राजाओं ने गृहस्थ में रहते हुए ही कर्मयोग के द्वारा परमात्मतत्त्व को प्राप्त किया। हे परन्तप! इस प्रकार राजर्षियों में इस कर्मयोग की परंपरा चली। परंतु बहुत समय बीत जाने के कारण वह कर्मयोग इस मनुष्यलोक में लुप्त हो गया है। तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो, इसलिए वही यह पुरातन कर्मयोग आज मैंने तुमसे कहा है। तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो, इसलिए वही यह पुरातन कर्मयोग आज मैंने तुमसे कहा है। यह बड़े उत्तम रहस्य की बात है, जिसे मैं तुम्हारे सामने प्रकट कर रहा हूँ।
भगवान् की बात सुनकर अर्जुन के मन में जिज्ञासा हुई कि श्रीकृष्ण तो अभी मेरे सामने बैठे हैं, फिर इन्होंने सृष्टि के आरंभ में सूर्य को उपदेश कैसे दिया? अतः अर्जुन भगवान् से प्रश्न करते हैं- ‘आपका जन्म (अवतार) तो अभी कुछ वर्ष पहले वसुदेव जी के घर हुआ है, पर सूर्य का जन्म सृष्टि के आरंभ में हुआ था, फिर सूर्य को आपने ही कर्मयोग का उपदेश दिया था, यह बात मैं कैसे समझूँ?’
श्रीभगवान् बोले- हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, जिनको मैं जानता हूँ, पर तुम नहीं जानते। परंतु मेरे और तुम्हारे जन्म में बहुत अंतर है। कारण कि मैं साधारण मनुष्यों की तरह जन्म ने मरने वाला नहीं हूँ। मैं ‘अजन्मा’ होते हुए भी प्रकट हो जाता हूँ और ‘अविनाशी’ होते हुए भी अन्तर्धान हो जाता हूँ।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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