सहज गीता -रामसुखदास पृ. 89

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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सत्रहवाँ अध्याय

(श्रद्धात्रय विभाग योग)

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि को तो नहीं जानते, पर श्रद्धापूर्वक देवताओं आदि का पूजन करते हैं, उनकी श्रद्धा सात्त्विकी (दैवी संपत्तिवाली) होती है या राजसी-तामसी (आसुरी संपत्ति वाली)? श्रीभगवान् बोले- मनुष्यों की स्वभाव से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्त्विकी, राजसी और तामसी। इन तीनों को तुम मुझसे अलग-अलग सुनो। हे भारत! मनुष्यों का अंतःकरण जैसा होता है, उसमें सात्त्विक, राजस या तामस जैसे संस्कार होते हैं, वैसी ही उनकी श्रद्धा होती है। कारण कि यह मनुष्य श्रद्धा प्रधान है। इसलिए उसकी जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है अर्थात् वैसी ही उसकी निष्ठा (स्थिति) होती है।
सात्त्विक मनुष्य देवताओं का, राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसों का और तामस मनुष्य भूत-प्रेतों का पूजन करते हैं। जो मनुष्य दम्भ, अहंकार, भोगों की कामना और जिद से युक्त होकर शास्त्र से विरुद्ध (मनगढ़ंत) घोर तप करते हैं, वे अपने शरीर को तथा अंतःकरण में स्थित मुझे भी कष्ट देते हैं। ऐसे अज्ञानी मनुष्यों को तुम आसुरी संपत्ति वाले समझो।
जो मनुष्य पूजन, तप आदि नहीं करते, उनकी निष्ठा क्या है- इसकी पहचान भोजन की रुचि से होती है, क्योंकि भोजन तो सभी करते हैं। इसलिए भोजन भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है अर्थात् मनुष्य सात्त्विक, राजस या तामस जैसी निष्ठावाला होता है, वैसा ही भोजन उसे प्रिय होता है। इसी तरह यज्ञ, तप और दान भी सबको तीन प्रकार के प्रिय होते हैं। इनके भेद को तुम मुझसे सुनो।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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