सहज गीता -रामसुखदास पृ. 55

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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दसवाँ अध्याय

(विभूति योग)

जैसे भक्त को भगवान् की बात सुनते हुए तृप्ति नहीं होती, ऐसे ही अपने प्रिय भक्त अर्जुन के प्रति अपने हृदय की बात कहते-कहते भगवान् को तृप्ति नहीं हो रही है। अतः भगवान् अर्जुन के बिना पूछे ही कृपा पूर्वक अपनी तरफ से कहना आरंभ करते हैं- हे महाबाहो! मेरे परम समग्र रूप से प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि ही जानते हैं; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदि हूँ। जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अविनाशी और संपूर्ण लोकों का महान् ईश्वर जानता है अर्थात् संदेह रहित स्वीकार कर लेता है, वह ज्ञानवान् मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
बुद्धि, ज्ञान, मोहर सहित होना, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में होना, मनका वश में होना, सुख, दुख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश- प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग बीस भाव मुझसे ही होते हैं। इन सबके मूल में मैं ही हूँ। केवल ये भाव ही नहीं, जो मुझमें श्रद्धा भक्ति रखते हैं और जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है, वे सात महर्षि और उनसे भी पहले होने वाले चार सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) ऋषि तथा चौदह मनु भी मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। संसार में जो कुछ विलक्षणता, विशेषता देखने में आती है, वह सब मेरा 'योग' (समार्थ्य) है, और उस योग से प्रकट होने वाली विशेषता मेरी 'विभूति' (ऐश्वर्य) है- इस प्रकार जो मनुष्य जान लेता है अर्थात् संदेह रहित स्वीकार कर लेता है, उसक मुझमें दृढ़ भक्ति हो जाती है, इसमें संदेह नहीं है।
मैं इस संसारमात्र की उत्पत्ति का मूल कारण हूँ और मुझसे ही संसार की संपूर्ण चेष्टाएँ हो रही हैं- ऐसा मानने वाले बुद्धिमान भक्त मुझमें ही श्रद्धा प्रेम रखते हुए मेरा ही भजन करते हैं। वे मुझमें मन वाले तथा मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले भक्त आपस में मेरे गुण, प्रभाव, लीला आदि को जनाते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझमें ही प्रेम करते हैं। उन नित्य-निरंतर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं कृपा पूर्वक वह बुद्धियोग (समता अथवा कर्मयोग) देता हूँ, जिससे उन्हें मेरी प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, उन भक्तों पर कृपा करने के लिए उनके भीतर रहने वाला मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अँधकार को ज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ अर्थात् उन्हें तत्त्वज्ञान करा देता हूँ। तात्पर्य है कि अपने आश्रित भक्तों को मैं स्वयं कृपा करके समता (कर्मयोग) और तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग)- दोनों प्रदान कर देता हूँ, जिससे उनमें किसी प्रकार की कोई कमी न रहे।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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