विषय सूची
सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)बारहवें अध्याय के आरंभ में आये अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने अपनी (सगुण-साकार की) उपासना का विस्तार से वर्णन किया। अब अपने निर्गुण-निराकार स्वरूप की उपासना का वर्णन आरंभ करते हुए श्रीभगवान् बोले- हे कौन्तेय! 'यह'- रूप से कहे जाने वाले शरीर को 'क्षेत्र' नाम से कहते हैं, और इस क्षेत्र को जानता है, उससे संबंध रखता है, उस जीवात्मा को ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नाम से कहते हैं। हे भारत! तुम संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझो। तात्पर्य है कि वास्तव में तुम्हारी एकता शरीर के साथ नहीं है, अपितु मेरे साथ है- इसको तुम जान लो। 'क्षेत्र' (शरीर)- की संसार के साथ एकता है और 'क्षेत्रज्ञ' (जीवात्मा)- की मेरे साथ एकता है- ऐसा जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है, वही मेरे मत में यथार्थ ज्ञान है। वह 'क्षेत्र' जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है तथा जिससे उत्पन्न हुआ है और वह 'क्षेत्रज्ञ' भी जो है तथा जिस प्रभाववाला है, वह सब तुम मुझसे संक्षेप में सुनो। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस तत्त्व को ऋषियों ने, वेदों की ऋचाओं ने और युक्तियुक्त एवं निश्चित किए हुए ब्रह्मसूत्र के पदों ने विस्तार से अलग-अलग वर्णन किया है। |
संबंधित लेख
अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज