सहज गीता -रामसुखदास पृ. 70

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तेरहवाँ अध्याय

(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)

बारहवें अध्याय के आरंभ में आये अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने अपनी (सगुण-साकार की) उपासना का विस्तार से वर्णन किया। अब अपने निर्गुण-निराकार स्वरूप की उपासना का वर्णन आरंभ करते हुए श्रीभगवान् बोले- हे कौन्तेय! 'यह'- रूप से कहे जाने वाले शरीर को 'क्षेत्र' नाम से कहते हैं, और इस क्षेत्र को जानता है, उससे संबंध रखता है, उस जीवात्मा को ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नाम से कहते हैं। हे भारत! तुम संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझो। तात्पर्य है कि वास्तव में तुम्हारी एकता शरीर के साथ नहीं है, अपितु मेरे साथ है- इसको तुम जान लो। 'क्षेत्र' (शरीर)- की संसार के साथ एकता है और 'क्षेत्रज्ञ' (जीवात्मा)- की मेरे साथ एकता है- ऐसा जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है, वही मेरे मत में यथार्थ ज्ञान है। वह 'क्षेत्र' जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है तथा जिससे उत्पन्न हुआ है और वह 'क्षेत्रज्ञ' भी जो है तथा जिस प्रभाववाला है, वह सब तुम मुझसे संक्षेप में सुनो। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस तत्त्व को ऋषियों ने, वेदों की ऋचाओं ने और युक्तियुक्त एवं निश्चित किए हुए ब्रह्मसूत्र के पदों ने विस्तार से अलग-अलग वर्णन किया है।
मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश), दस इंद्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इंद्रियों के पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)- यही चौबीस तत्त्वों वाला 'क्षेत्र' है। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, शरीर, प्राणशक्ति और धारणाशक्ति- ये सातों 'क्षेत्र' के विकार हैं, जिन्हें मैंने संक्षेप से कहा है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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