सहज गीता -रामसुखदास पृ. 104

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

Prev.png

गीता सार

पहले अध्याय का सार

सांसारिक मोह के कारण ही मनुष्य 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ'- इस दुविधा में फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्ति के वशीभूत नहीं होना चाहिए।

दूसरे अध्याय का सार

शरीर नाशवान् है और उसे जानने वाला शरीरी अविनाशी है- इस विवेक को महत्त्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना- इन दोनों में से किसी भी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता शोक मिट जाते हैं।

तीसरे अध्याय का सार

निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करने मात्र से कल्याण हो जाता है।

चौथे अध्याय का सार

कर्मबंधन से छूटने के दो उपाय हैं- कर्मों के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्त्वज्ञान का अनुभव करना।

Next.png

संबंधित लेख

सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः