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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
गीता सारपहले अध्याय का सारसांसारिक मोह के कारण ही मनुष्य 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ'- इस दुविधा में फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्ति के वशीभूत नहीं होना चाहिए। दूसरे अध्याय का सारशरीर नाशवान् है और उसे जानने वाला शरीरी अविनाशी है- इस विवेक को महत्त्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना- इन दोनों में से किसी भी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता शोक मिट जाते हैं। तीसरे अध्याय का सारनिष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करने मात्र से कल्याण हो जाता है। चौथे अध्याय का सारकर्मबंधन से छूटने के दो उपाय हैं- कर्मों के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्त्वज्ञान का अनुभव करना। |
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