सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय(मोक्ष संन्यास योग)अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास (ज्ञानयोग) और त्याग (कर्मयोग)- का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ। श्रीभगवान् बोले- इस विषय में दार्शनिक विद्वों के चार मत हैं-
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें न करते हों तो जरूर करना चाहिए। कारण कि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म विचारशील मनुष्यों को पवित्र करने वाले, आनन्द देने वाले हैं। हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा इनके सिवाय दूसरे भी कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके करना चाहिए- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है। |
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- ↑ शास्त्रों ने जिन कर्मों को करने की आज्ञा दी है, वे सभी ‘विहित कर्म’ कहलाते हैं। उन विहित कर्मों में भी वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिसके लिए जो (जीविका और शरीर निर्वाह संबंधी) कर्म आवश्यक होता है, उसके लिए वह ‘नियत कर्म’ कहलाता है। विहित की अपेक्षा नियत कर्म में मनुष्य की विशेष जिम्मेवारी होती है। जैसे, किसी को पहरे पर खड़ा कर दिया जा जल पिलाने के लिए प्याऊ पर बैठा दिया तो यह उसके लिए नियत कर्म हो गया, जिसकी उस पर विशेष जिम्मेवारी है। इसलिए नियत कर्म के त्याग का ज्यादा दोष लगता है।
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