सहज गीता -रामसुखदास पृ. 93

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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अठारहवाँ अध्याय

(मोक्ष संन्यास योग)

अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास (ज्ञानयोग) और त्याग (कर्मयोग)- का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ। श्रीभगवान् बोले- इस विषय में दार्शनिक विद्वों के चार मत हैं-

  1. कई विद्वान् सकामभाव से किये जाने वाले काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं,
  2. कई संपूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं,
  3. कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मों को दोष की तरह त्याग देना चाहिए, और
  4. कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! संन्यास और त्याग- इन दोनों में से पहले तुम ‘त्याग’ के विषय में मेरा निश्चय सुनो। हे पुरुषश्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का होता है- सात्त्विक, राजस और तामस।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें न करते हों तो जरूर करना चाहिए। कारण कि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म विचारशील मनुष्यों को पवित्र करने वाले, आनन्द देने वाले हैं। हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा इनके सिवाय दूसरे भी कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके करना चाहिए- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
(तीन प्रकार का त्याग-) नियत[1] कर्म का त्याग किसी के लिए भी उचित नहीं है। मोह के कारण इसका त्याग कर देना ‘तामस’ त्याग है। कर्तव्य-कर्म करने में दुःख ही भोगना पड़ता है- ऐसा समझकर शारीरिक परिश्रम के भय से उसका त्याग करना ‘राजस’ त्याग है। ऐसा त्याग करने वाले को त्याग का फल- शान्ति तो नहीं मिलती, पर दण्ड जरूर मिलता है! हे अर्जुन! केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है- ऐसा समझकर आसक्ति और फल का त्याग करके कर्म करना ‘सात्त्विक’ त्याग है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. शास्त्रों ने जिन कर्मों को करने की आज्ञा दी है, वे सभी ‘विहित कर्म’ कहलाते हैं। उन विहित कर्मों में भी वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिसके लिए जो (जीविका और शरीर निर्वाह संबंधी) कर्म आवश्यक होता है, उसके लिए वह ‘नियत कर्म’ कहलाता है। विहित की अपेक्षा नियत कर्म में मनुष्य की विशेष जिम्मेवारी होती है। जैसे, किसी को पहरे पर खड़ा कर दिया जा जल पिलाने के लिए प्याऊ पर बैठा दिया तो यह उसके लिए नियत कर्म हो गया, जिसकी उस पर विशेष जिम्मेवारी है। इसलिए नियत कर्म के त्याग का ज्यादा दोष लगता है।

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