सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
नौवाँ अध्याय(राज विद्याराज गुह्य योग)जिनके भीतर भोग तथा संग्रह की कामना होती है, वे लोग मुझसे विमुख होकर स्वर्गादि लोकों के भोगों की प्राप्ति के लिए तीनों वेदों में वर्णित यज्ञादि सकाम अनुष्ठान करते हैं। वे वैदिक मंत्रों से सोमरस (सोमवल्ली नामक लता का रस) पीते हैं और यज्ञों के द्वारा मेरे इन्द्र रूप का पूजन और स्वर्गप्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। इन पुण्यों के फलस्वरूप उनके स्वर्ग के प्रतिबंधक पाप नष्ट हो जाते हैं और वे स्वर्गलोक में जाकर वहाँ के दिव्य भोगों को भोगते हैं। जब उनके स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाले पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब वे पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वेदों में वर्णित सकाम शुभकर्मों में लगे हुए तथा भोगों की कामना वाले वे मनुष्य कोल्हू के बैल की तरह बार-बार संसार में घूमते रहते हैं। परंतु जो मनुष्य केवल मेरा ही आश्रय लेते हैं और मेरा ही चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उन निरंतर मुझमें लगे हुए अनन्य भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं स्वयं वहन करता हूँ अर्थात् उन भक्तों के सब काम मैं स्वयं करता हूँ। हे कौन्तेय! तत्त्व से मेरे सिवाय कुछ नहीं होने से देवता भी मेरा ही स्वरूप हैं। अतः जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी वास्तव में मेरा ही पूजन करते हैं, पर अज्ञान के कारण वे देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं। यद्यपि मैं ही संपूर्ण शुभ-कर्मों तथा कर्तव्य-कर्मों का भोक्ता और सारे संसार का मालिक हूँ, तथापि वे देवताओं के उपासक मुझे तत्त्व से न जानने के कारण अपने को ही भोक्ता और मालिक मान बैठते हैं, जिस कारण उनका पतन हो जाता है। यह नियम है कि जो मनुष्य सकामभाव से देवताओं का पूजन करते हैं, वे मरने पर देवताओं के पास जाते हैं, जो पितरों का पूजन करते हैं, वे मरने पर पितरों के पास जाते हैं, और जो भूत-प्रेतों का पूजन करते हैं, वे मरने पर भूत-प्रेतों के पास जाते जाते हैं। परंतु जो मेरा पूजन करते हैं, वे निश्चितरूप से मेरे पास आते हैं। मेरे पास आने के बाद उन्हें फिर लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता।
|
संबंधित लेख
अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज