सहज गीता -रामसुखदास पृ. 51

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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नौवाँ अध्याय

(राज विद्याराज गुह्य योग)

सभी साधक अपनी रुचि, योग्यता तथा श्रद्धा विश्वास के अनुसार अलग-अलग साधनों से एक मेरे ही समग्ररूप की उपासना करते हैं। कारण कि वैदिक रीति से किया जाने वाला ‘क्रतु’ और पौराणिक रीति से किया जाने वाला ‘यज्ञ’ मैं ही हूँ। पितरों को अर्पण किया जाने वाला ‘स्वधा’ और ‘औषध’ भी मैं ही हूँ। जिनसे यज्ञादि कर्म किये जाते हैं, वे मंत्र, घृत, अग्नि तथा हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार और ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस संपूर्ण जगत् को धारण करने वाला ‘धाता’ भी मैं ही हूँ। इस जगत् का पिता, माता और पितामह (ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाला) भी मैं ही हूँ। सब प्राणियों के लिए प्राप्त करने योग्य ‘गति’, जगत् का भरण पोषण करने वाला ‘भर्ता’ और जगत् का मालिक ‘प्रभु’ भी मैं ही हूँ। सबको ठीक तरह से जानने वाला ‘साक्षी’, सबका निवास, सबका आश्रय और सबका सुहृद् भी मैं ही हूँ। संपूर्ण संसार मुझसे ही उत्पन्न होता है और मुझमें ही लीन होता है, इसलिए ‘प्रभव’ और ‘प्रलय’ भी मैं ही हूँ। महाप्रलय हो या महासर्ग हो, सारा संसार मुझमें ही रहता है, इसलिए मैं ही ‘स्थान’ और ‘निधान’ हूँ। सांसारिक बीज तो वृक्ष से पैदा होता है और वृक्ष को पैदा करके नष्ट हो जाता है, पर मैं पैदा नहीं होता और अनन्त सृष्टियाँ पैदा करके भी ज्यों-का-त्यों ही रहता हूँ, इसलिए मैं ‘अव्यय बीज’ हूँ। हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ तथा जल को ग्रहण करके उसे वर्षा रूप से बरसाता हूँ। और तो क्या कहूँ, अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ; मेरे सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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