सहज गीता -रामसुखदास पृ. 31

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

Prev.png

पाँचवाँ अध्याय

(कर्म संन्यास योग)

जिनके मन में निरंतर परमात्मा का ही चिन्तन होता रहता है, जिनकी बुद्धि में एक परमात्मा की ही सत्ता का अटल निश्चय है, जो निरंतर परमात्मा में ही अपनी स्थिति का अनुभव करते हैं और परमात्मा के ही परायण हैं, ऐसे साधक विवेक ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर उस परमगति को प्राप्त हो जाते हैं, जहाँ से लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। ऐसे ज्ञानी महापुरुष व्यवहारकाल में विद्या एवं विनय से संपन्न ब्राह्मण और चाण्डाल से तथा गाय, हाथी तथा कुत्ते से यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी भीतर से उनमें समान दृष्टि रखते हैं। तात्पर्य है कि व्यवहार में विषमता अनिवार्य होने पर भी उनकी दृष्टि विषम नहीं होती अर्थात् उनकी दृष्टि उन सबमें समान रीति से परिपूर्ण एक परमात्मा पर ही रहती है। अतः उनका सबके प्रति समान आत्मीयता तथा हित का भाव रहता है।
जिनका अंतःकरण समता में स्थित (राग-द्वेषादि विकारों से रहित) है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार को जीत लिया है अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये हैं। परमात्मा में किंचिन्मात्र भी दोष तथा विषमता नहीं है। इसलिए जिन महापुरुषों का अंतःकरण निर्दोष तथा सम हो गया है, वे परमात्मा में ही स्थित हैं; क्योंकि परमात्मतत्त्व में स्थित हुए बिना पूर्ण समता आनी संभव ही नहीं। जो अनुकूल प्राणी, पदार्थ आदि के मिलने पर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ आदि के मिलने पर दुखी नहीं होता, वह स्थिर बुद्धिवाला, अज्ञान से रहित तथा ब्रह्म को जानने वाला महापुरुष वास्तव में ब्रह्म में ही स्थित है अर्थात् वह ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है।
जिसकी सांसारिक सुख में आसक्ति मिट जाती है, उसे पहले सात्त्विक सुख का अनुभव होता है। फिर उस सात्त्विक सुख का भी उपभोग न करने से उसे नित्य एकरस रहने वाले परमात्म स्वरूप अविनाशी सुख का अनुभव हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन विषयों से इन्द्रियों का रागपूर्वक संबंध होने पर जो सुख का अनुभव होता है, उसे ‘भोग’ कहते हैं।

Next.png

संबंधित लेख

सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः