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पाँचवाँ अध्याय
(कर्म संन्यास योग)
ऐसे जितने भी भोग हैं, वे सब के सब आने जाने वाले और दुख के कारण हैं। इसलिए आरंभ में सुखरूप प्रतीत होने पर भी परिणाम में वे दुख ही देने वाले हैं। सुख के भोगी को दुख भोगना ही पड़ता है। इसलिए विवेकी मनुष्य उन भोगों में रमण नहीं करता, उनसे सुख नहीं लेता। जो मनुष्य शरीर छूटने से पहले ही काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन कर लेता है अर्थात् उनके वेग को उत्पन्न ही नहीं होने देता अथवा वेग उत्पन्न होने पर भी वैसी क्रिया नहीं करता, वही वास्तव में शूरवीर है, वही योगी है तथा वही सुखी है।
जिस निवृत्तिपरायण साधक को संसार में सुख प्रतीत नहीं होता, अपितु परमात्मा में ही सुख मिलता है, जो व्यवहारकाल में भी केवल परमात्मा में ही रमण करता है, जिसमें परमात्मतत्त्व का ज्ञान हर समय जाग्रत रहता है, ऐसा ज्ञानयोगी निरंतर ब्रह्म में ही अपनी स्थिति का अनुभव करते हुए ब्रह्म के साथ अभिन्न हो जाता है। जिन प्रवृत्तिपरायण साधकों के शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि स्वाभाविक ही वश में रहते हैं, जिनकी संपूर्ण प्राणियों के हित में प्रतीत होती है, जिनके संपूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके संपूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं, ऐसे विवेकशील ज्ञानयोगी ब्रह्म के साथ अभिन्न हो जाते हैं। जो काम क्रोध से सर्वथा रहित हो गये हैं, जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है और जिन्हें अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो गया है, ऐसे महापुरुष शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद नित्य-निरंतर ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
जिस तत्त्व (ब्रह्म)- को कर्मयोगी और ज्ञानयोगी प्राप्त करता है, उसी तत्त्व को ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है। बाहरी पदार्थों से विमुख होकर और अपने नेत्रों की दृष्टि को भौहों के बीच में स्थित करके तथा प्राण और अपानवायु[1] की गति को सम करके ध्यान करने वाले जिस साधक की इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि अपने वश में हैं, परमात्मप्राप्ति करना ही जिसका उद्देश्य है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह वास्तव में सदा ही (जीते जी) मुक्त है।
जो भक्त मुझे संपूर्ण शुभ कर्मों तथा तपों का भोक्ता, संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा संपूर्ण प्राणियों का सुहृद् अर्थात् स्वार्थ-रहित दयालु और प्रेमी मानता है, उसे परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है।
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