सहज गीता -रामसुखदास पृ. 30

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

Prev.png

पाँचवाँ अध्याय

(कर्म संन्यास योग)

जैसे कर्मयोगी और ज्ञानयोगी कर्मों से निर्लिप्त रहता है, ऐसे ही भक्तियोगी भी कर्मों से निर्लिप्त रहता है। भक्तियोगी संपूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है। इसलिए वह जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता।
कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके और शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि को अपना न मानकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं। शरीर-इन्द्रियाँ मन-बुद्धि में अपनेपन का सर्वथा अभाव हो जाना ही अंतःकरण की शुद्धि है। कर्मयोगी कर्मफल की कामना का त्याग करके कर्म करता है, इसलिए उसे परमशान्ति प्राप्त हो जाती है। परंतु जो कर्मफल की कामना रखकर कर्म करता है, वह जन्म-मरणरूप बंधन में पड़ जाता है। जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में है, वह ज्ञानयोगी नौ द्वार वाले शरीररूपी नगर में रहते हुए विवेकपूर्वक मन से ऐसा मानता है कि मैं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं हूँ। वह न तो किसी क्रिया को करने वाला बनता है और न करने वाला ही बनता है। इसलिए वह स्वरूप में स्वतः स्वाभाविक स्थित रहते हुए अखण्ड सुख का अनुभव करता है। सृष्टि के रचयिता भगवान् भी न तो किसी मनुष्य के कर्तापन की रचना करते हैं, न किसी से कर्म करवाते हैं और न कर्मफल के साथ किसी का संबंध ही जोड़ते हैं। मनुष्य ही स्वभाव के वशीभूत होकर इनके साथ संबंध जोड़ लेता है। तात्पर्य है कि कर्तापन भगवान् का बनाया हुआ नहीं है, अपितु मनुष्य का अपना बनाया हुआ है। भगवान् ऐसा विधान भी नहीं करते कि मनुष्य को अमुक कर्म करना पड़ेगा। अतः मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है। भगवान् जीव का कर्मफल के साथ भी संबंध नहीं जोड़ते, अपितु जीव स्वयं ही संबंध जोड़ता है और सुखी-दु:खी होता है। सर्वव्यापी परमात्मा किसी के भी कर्म के फलभागी नहीं होते; अतः वे किसी के भी पापकर्म और पुण्यकर्म को ग्रहण नहीं करते। मनुष्यों का ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है, इसीलिए सब मनुष्य कर्म और कर्मफल के साथ संबंध जोड़कर सुखी दुखी हो रहे हैं। परंतु जिन्होंने अपने विवेक को महत्त्व देकर उस अज्ञान (मैं मेरापन)- का नाश कर दिया है, उनका वह विवेक सूर्य की तरह परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है अर्थात् उन्हें सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।

Next.png

संबंधित लेख

सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः