सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय(कर्म योग)हे अर्जुन! तुम विवेकवती बुद्धि से विचार करके संपूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को मेरे कर दो अर्थात् उनको अपने और अपने लिए न मानकर मेरे और मेरे लिए ही मानो। फिर कामना, ममता और संताप से रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य कर्म को करो। जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित श्रद्धापूर्वक मेरे इस सिद्धांत के अनुसार चलते हैं अर्थात् संसार में शरीर आदि कुछ भी अपना नहीं है, ऐसा मानते हैं, वे कर्म बंधन से छूट जाते हैं। परंतु जो मनुष्य मेरे इस सिद्धांत में दोषदृष्टि करते हुए इसके अनुसार नहीं चलते, उन सांसारिक विद्याओं में ही रचे-पचे रहने वाले अविवेकी मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझना चाहिए। वे जन्म मरण के चक्र में ही पड़े रहेंगे।
संपूर्ण प्राणी अपने-अपने राग द्वेषयुक्त स्वभाव के अनुसार कर्म करते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार क्रिया करता है, पर उसका स्वभाव राग-द्वेष से रहित, सर्वथा शुद्ध होता है। इस प्रकार जिसका जैसा स्वभाव है, उसके अनुसार उसे कर्म करने ही पड़ेंगे, इसमें उसका हठ काम नहीं करेगा। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता का भाव होने पर मनुष्य का उस विषय में ‘राग’ हो जाता है और प्रतिकूलता का भाव होने पर उसमें ‘द्वेष’ हो जाता है। परंतु मनुष्य को उन राग-द्वेष के वश में होकर उनके अनुसार कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए; क्योंकि वे दोनों ही मनुष्य के पारमार्थिक मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु हैं।
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