सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय(कर्म योग)कर्मयोग परमात्मप्राप्ति का स्वतंत्र साधन है। राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष गृहस्थ में रहकर भी आसक्ति रहित होकर कर्म करके (कर्मयोग के द्वारा) परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं; क्योंकि उन्होंने केवल दूसरों की सेवा के लिए ही राज्य किया, अपने सुख के लिए नहीं। इसलिए तुम्हें भी आसक्तिरहित होकर कर्म करके लोगों में आदर्श स्थापित करन चाहिए। कारण कि जिस समाज, संप्रदाय आदि में जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाता है और जिसे लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं, वह जो-जो आचरण करता है, उस समाज आदि के दूसरे मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। वह अपने वचनों से जो कुछ कहता है, दूसरे मनुष्य भी उसी के अनुसार आचरण करने लग जाते हैं। हे पार्थ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करना और पाना शेष नहीं है, फिर भी मैं दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करने में लगा रहता हूँ। कारण कि हे पार्थ! यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्य का पालन न करूँ तो मनुष्य भी मेरा अनुसरण करके कर्तव्य-कर्म करना छोड़ देंगे, जिससे उनका पतन हो जायगा। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन न करने से ही वर्णसंकरता फैलती है। इसलिए तुम्हें भी तत्पर होकर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
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