सहज गीता -रामसुखदास पृ. 19

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

कर्मयोग परमात्मप्राप्ति का स्वतंत्र साधन है। राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष गृहस्थ में रहकर भी आसक्ति रहित होकर कर्म करके (कर्मयोग के द्वारा) परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं; क्योंकि उन्होंने केवल दूसरों की सेवा के लिए ही राज्य किया, अपने सुख के लिए नहीं। इसलिए तुम्हें भी आसक्तिरहित होकर कर्म करके लोगों में आदर्श स्थापित करन चाहिए। कारण कि जिस समाज, संप्रदाय आदि में जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाता है और जिसे लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं, वह जो-जो आचरण करता है, उस समाज आदि के दूसरे मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। वह अपने वचनों से जो कुछ कहता है, दूसरे मनुष्य भी उसी के अनुसार आचरण करने लग जाते हैं। हे पार्थ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करना और पाना शेष नहीं है, फिर भी मैं दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करने में लगा रहता हूँ। कारण कि हे पार्थ! यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्य का पालन न करूँ तो मनुष्य भी मेरा अनुसरण करके कर्तव्य-कर्म करना छोड़ देंगे, जिससे उनका पतन हो जायगा। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन न करने से ही वर्णसंकरता फैलती है। इसलिए तुम्हें भी तत्पर होकर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
हे भारत! कर्मों में आसक्ति रखने वाले अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार सकामभाव से शास्त्रविहित कर्म करते हैं, उसी प्रकार आसक्तिरहित ज्ञानी महापुरुष को भी निष्कामभाव से (दूसरों के हित के लिए) कर्म करने चाहिए। वह अपने वचनों से उन अज्ञानी मनुष्यों की बुद्धि में भ्रम पैदा करके उन्हें कर्तव्य कर्म करने से न रोके, अपितु स्वयं भी भलीभाँति कर्तव्य कर्म करते हुए उनसे भी वैसे ही कर्म करवाये। बंधन का कारण आसक्ति है, कर्म नहीं।
संसार में जितनी भी क्रियाएँ हो रही हैं, सब प्रकृति के सत्त्व, रज और तम-तीनों गुण तथा उनसे उत्पन्न शरीर, इंद्रियाँ आदि के द्वारा ही हो रही हैं। चेतन (आत्मा) कभी कोई क्रिया नहीं करता। परंतु अंतःकरण की वृत्ति ‘अहंकार’ के साथ संबंध मान लेने के कारण अज्ञानी मनुष्य शरीर में मैं-मेरापन कर लेता है और शरीर से होने वाली क्रियाओं का कर्ता अपने को मान लेता है कि ‘मैं करता हूँ’। हे महाबाहो! जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, उस ज्ञामनी महापुरुष का शरीर तथा उससे होने वाली क्रियाओं से कोई संबंध नहीं रहता। इसलिए वह ‘संपूर्ण गुण में ही गुणों में बरत रहे हैं’ अर्थात् संपूर्ण क्रियाएँ जड़ प्रकृति में ही हो रही हैं- ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता। प्रकृतिजन्य गुणों से बंधे हुए अज्ञानीलोग पदार्थों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी महापुरुषों को चाहिए कि वह उन मन्दबुद्धिवाले अज्ञानियों को सकामभाव से किए जाने व ले शुभ कर्मों से न हटाये।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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