सहज गीता -रामसुखदास पृ. 21

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

श्री भगवान् बोले- सांसारिक पदार्थों के संग्रह और सुखभोग की कामना ही मनुष्य को पाप में लगाती है। यह कामना रजोगुण से उत्पन्न होती है। कामना में बाधा लग जाय तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है। कितने ही पदार्थ मिल जायँ, पर इस कामना की कभी तृप्ति नहीं होती। यह कामना ही संपूर्ण पापों का कारण है। इसलिए इस कामना को अपना मित्र नहीं, अपितु शत्रु जानो। जैसे धुएँ से आग, मैल से दर्पण तथा जेर से गर्भ ढक जाता है, ऐसे ही कामना से मनुष्य का विवेक ढक जाता है। हे। कौन्तेय! जैसे आग में घी डालते रहने से आग कभी शान्त नहीं होती, अपितु बढ़ती ही रहती है, ऐसे ही भोग-पदार्थों के मिलने पर भी कामना कभी शान्त नहीं होती, अपितु ज्यों का त्यों धन आदि पदार्थ मिलते हैं, त्यों-त्यों उनकी कामना बढ़ती रहती है। इसलिए विवेक को ढकने वाली यह कामना साधकों के लिए सदा ही शत्रु के समान है।
किसी शत्रु को नष्ट करने के लिए उसके रहने के स्थानों की जानकारी होनी आवश्यक है। इसलिए कामना के रहने का स्थान बताता हूँ। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- इस कामना के रहने के स्थान हैं। कामना इन तीनों के द्वारा देहाभिमानी (शरीर को मैं मेरा मानने वाले) मनुष्य को ज्ञान को ढककर उसे मोहित कर देती है, जिससे उसे अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं रहता। इसलिए हे भरतर्षभ! तुम सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस विवेक ज्ञान और तत्त्वज्ञान को ढकने वाली तथा संपूर्ण पापों की जड़ कामना को अवश्य ही बलपूर्वक मार डालो। स्थूल शरीर से इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ, बलवान्, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) हैं, इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी पर अहम् है। उस अहम् में यह कामना रहती है। इस तरह इस कामना के रहने का मुख्य स्थान ‘अहम्’ को जानकर अपने द्वारा अपने आपको वश में करके (संसार से संबंध विच्छेद करके) हे महाबाहो! तुम इस कामनारूपी दुर्जय शत्रु को मार डालो। कारण कि जब तक संसार के साथ संबंध रहता है, तभी तक कामना रहती है। संसार से संबंध-विच्छेद होते ही कामनाओं का नाश हो जाता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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