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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
मनोहर रति-विलासादि के माधुर्य से मण्डित श्रीवृन्दावन के कुंजों में मेरे चित्तचोर गौरश्याम युगलकिशोर सदा स्फुरित हों।।89।।
मैं धर्म अधर्म को नहीं जानता हूं, शास्त्रों का दर्शन भी नहीं किया है, सुविधा भी कुछ प्राप्त नहीं है। अतः श्रीराधा-कृष्ण के चरण कमल माधुर्य के लोभ में मेरा मन मधुकर भ्रमण कर रहा है।।90।।
अत्यन्त उन्मादरस सागर में निमग्न, श्रीवृन्दावन के कुंजों में क्रीड़ा परायण, गौरश्यामात्मक युगल-नागर का मैं भजन करता हूँ।।91।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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