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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
अहा! मै दुष्टकर्मकारी अति मूर्ख हूं, मेरी कुछ भी गति क्यों न हो, किन्तु मैं श्रीवृन्दावन को नहीं छोडूंगा और न ही यहाँ श्रीराधा-नाम को छोडूंगा।।86।।
अतिशय माधुर्यधारपूर्ण श्रीराधा रूप-विलासादि का गान करते हुए मैं इस श्रीवृन्दावन में निश्चिन्त हो गया हूँ।।87।।
चम्पक और नीलोत्पल के समान कांतियुक्त, रूप-वयस-सौन्दर्य तथा विलासादि की सीमा, कामैक-रसमूर्त्ति, श्रीवृन्दावन की वह जोड़ी ही मेरी गति है।।88।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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