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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
श्री वृन्दावन में भले ही मैं कृमि होकर रहूंगा, किन्तु अन्यत्र चिदानन्द देह के लिये भी प्रार्थना नहीं करता हूँ। यहाँ अतुलनीय दरिद्रता की भले ही इच्छा करता हूँ, किन्तु और स्थान पर अनन्त विभूतियों की भी इच्छा नहीं है। भले ही श्रीहरि भजन-लवशून्य होकर (लव मात्र भी श्रीहरि भजन न कर) अति तुच्छ विषयों में लोलुप होता हुआ ब्रज में वास करूंगा, तथापि श्री गोपीजन-रमण के पाद पद्मों की दीक्षा के सुख में भी लुब्ध होकर अन्यत्र नहीं जाऊंगा।।1।।
श्री वृन्दावन में (जो) दिव्य-दिव्य अनेक विचित्र पुष्प एवं फलशाली वृक्ष-लताओं का समूह है, दिव्य-दिव्य अनेक मोरों कोकिलाओं एवं शुकादि पक्षियों की (जो) आनन्द-उन्मत्त ध्वनि है, दिव्य-दिव्य अनेक सरोवरों, नदियों, पर्वतों से शोभित (जो) नवीन-नवीन कुञ्ज समूह हैं एवं दिव्य स्वर्णमयी (जो) रत्न भूमि है- (इन्होंने) मुझे मोहित कर लिया है।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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