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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
अपने आन्तरिक-भाव (श्रीकृष्ण-दास्यभाव) के विरोधी सब व्यवहरों को धीरे-धीरे त्यागकर, अन्तश्चिन्तित तत्त्व (सेव्यतत्तव, श्रीराधाकृष्णतत्त्व) का ही निरन्तर सर्वत्र अनुसन्धान (खोज) कर, सदा उसी भावमयी दृष्टि से स्थावर जंगमादि को देखते हुए अन्य प्रकार की भावनाओं का त्याग कर, श्रीवृन्दावन-विलासी श्रीयुगल-किशोर की सेवा में निशिदिन तत्पर रह।।1।।
प्रकृति-आवरण उल्लंघन कर विस्तीर्ण ब्रह्म ज्योति में प्रवेश कर, फिर अनैकान्तिक (जो एकान्तिक-अद्वितीय ब्रह्मवादी नहीं हैं,) अर्थात् भक्त ही जिसे देख सकते हैं,- उस वैकुण्ठलोक के दर्शन कर, उससे ऊपर उच्च उच्चतर मनोहर धामों का अनुसरण कर एवं यदि किसी अनिर्वचनीय वस्तु के पाने की इच्छा हो तो सर्वोपरि महा-उज्ज्वल श्रीवृन्दावन में भ्रमण कर।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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