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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वादश शतकम्
श्रीवृन्दावन को छोड़कर अन्यत्र रहने पर श्रीराधा की आराधना की निष्ठायुक्त होकर भी मेरे अन्तःकरण का ताप शांत नहीं होता है। एक रोग से पीड़ित व्यक्ति की क्या किसी अन्य भाव से अर्थात् उस रोग की निर्दिष्ट औषधि को छोड़ कर चिकित्सा हो सकती है।।1।।
श्रीराधा-माधव का जैसे कभी भी विरह सम्भव नहीं है, उसी प्रकार श्री युगल किशोर की (मधुर) रस के साथ तथा श्रीवृन्दावन के साथ परम एकता है या नित्य सम्बन्ध है।।2।।
हे सखे! तुम्हे बहु शास्त्रों के जानने की कोई आवश्यकता नहीं, जिनका श्रीवृन्दावन मे विषय में पाण्डित्य नहीं है, उन समस्त वाक्य कुशल महापुरुषों के वचनों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं एवं अति विशाल दुर्गजाल उत्पन्न करके तर्क वितर्क करने की भी आवश्यकता नहीं, केवल इस श्री वृन्दावन में निशंक चित्त होकर वास कर।।3।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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