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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
(श्रीराधाजी) मनोहर प्रफुल्लित स्वर्ण-पद्म कोषवत् सुन्दरवदनी है एवं उनके दांतों की कान्ति पके अनार की चमक की भाँति स्फुरित हो रही है।।1।।
उनके सुचारु बिम्बार की ज्योति से माधुर्य का समुद्र प्रवाहित हो रहा है, परम सुन्दर चिबुक पर श्याम-बिन्दु होने से वह अति मोहिनी मूर्त्ति बन रही हैं।।2।।
लज्जायुक्त मृदु-मधुर-हास्य द्वारा उनके नेत्र खंजनवत् चंचल हो रहे हैं, एवं भ्रु विलास से कामदेव के बाणों को पराजित कर वह महा सौभाग्य-शालिनी हो रही हैं ।।3।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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