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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्दश शतकम्
अविद्या सागर से बहुत परे, विद्या सागर का महाद्भुत सार स्वरूप श्रीराधा-कृष्ण के विहार से उज्ज्वल इस श्रीवृन्दावन विपिन की चिरकाल तक आराधना कर।।1।।
कुतर्कों की और अब जरूरत नहीं है, एकदम मोह जाल को काटकर तुम पक्षी की भाँति उड़ कर मनोरम श्रीवृन्दावन में जाकर पतित हो।।2।।
हे मति रूप पक्षिनि! विषय के जहरीले वन को त्याग कर दुराशाओं के पाशों को काट डाल, अमृत स्वरूप श्रीवृन्दावन में ही उड़ चलना तुम्हें उचित है।।3।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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