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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
श्रीवृन्दावन में वास करते हुए कोटि नरक हों या नहीं हो, अधम होकर भी मेरी किन्तु श्रीराधा-चरणकमल की दासता को कभी न छोड़ने की आशा बनी रहे।।92।।
यदि सहस्रों दुर्वचन सहन करने पड़े, यदि कोई इस देह को दरांत द्वारा विदीर्ण ही क्यों न कर दे, कोटि-कोटि दुष्कर्म भी यदि करने पड़े तो भी श्रीराधा जी के प्रियवन श्रीवृन्दावन को मैं त्याग नहीं करूंगा।।93।।
श्रीवृन्दावन की कृपा से यहाँ मृत्यु पर्यन्त वास पाऊं, तो चण्डालगणों से धिक्कारित होने पर भी मैं उसे तृण के समान जानूंगा।।94।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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