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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
न कहीं से आते हैं एवं नह कहीं जाते हैं, अनादि अनन्त काल से पारावारहीन अति विषम कामरस सागर में जो मज्जन कर रहे हैं, वे सहज अतिशय आश्चर्यमय युगलकिशोर-श्रीगौर-श्याम दिव्यकांतिधारी मिलित-विग्रह से जहाँ प्राण-स्वरूप हो विराजमान हैं, उस श्रीवृन्दावन को नमस्कार करता हूँ।।68।।
किशोर अवस्था के अद्भुत रूप, कांति, गति, दृष्टि, वाक्य तथा अंग भंगिमा आदि की असमोर्द्ध सुन्दरताराशि के द्वारा पूर्ण आस्वादनीय, विशुद्ध भावमय चिन्मूर्त्ति महामोहन, कामोन्मद विकारयुक्त परमाश्चर्य आकृति वाले परम श्रेष्ठ श्रीयुगलकिशोर कीश्रीवृन्दावन में शरण ग्रहण कर ।।69।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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