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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
पूर्ण-स्वर्ण-सुगौर कांति-समुद्र की अत्युच्च तरंगों दिशाओं को सिंचनकारी, नवीन यौवन के कला-विलासादि के सौंदर्य से उन्मत्त एवं मोहित करने वाली, आस्वादनीय-महाप्रेम रसात्मक, विग्रह, श्रीवृन्दावन की भूषण-स्वरूपिणी, श्याम-संजीवनी कोई अपूर्व-विद्या (श्रीराधा जी) नित्य ही मेरे हृदय में विराजमान रहें ।।44।।
अगाध प्रेमसार-रूपिणी श्रीराधा जी की जय हा, जय हो, तदीयरस के लिए अपार तृषातुर श्रीकृष्ण की जय हो, जय हो, इन युगल के मिलाप की आकांक्षा करने वाली सखीवृन्दों की जय हो, जय हो, एवं उनके स्वीयधाम श्रीवृन्दावन की जय हो, जय हो।।45।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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