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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
श्रीराधा-मुरलीधर के चरण कमलों का प्रेम ही एकमात्र जिसका जीवन है, जो पर-स्त्री को मातृवत तथा स्थावर जंगल जीवों को सुपुत्रवत जानता है, अतिशय तर्जनादि करने वालों को स्वज्ञातिवत् एवं विद्वेषीगणों को महामित्रवत मानता है और अपने शरीर के साथ पराये शरीरवत् आचरण करता है, वही श्रीवृन्दावन में वास करने के योग्य है।।81।।
हाय! श्रीकृष्ण-प्रेमामृत-समुद्र में अति मग्न होकर, श्रीराधा जी के चरण-कमलों को दास्य-लास्यता की आशा को स्व-स्वरूप में सम्यक बढ़ाते हुए, एकमात्र वेराग्यरस द्वारा ही किसी एक विश्व-मधुर दशा को प्राप्त होकर एवं निन्तर अश्रुधारा प्रवाह करता हुआ कब मैं श्रीवृन्दावन में वास करूंगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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