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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
जहां-तहां महाश्चर्यमय महारमणीय स्थलों पर बैठकर सखी वृन्द गान करती हैं कभी प्रियतमा श्रीराधा जी से गान कराती हैं।।78।।
श्रीवृन्दावन में अनन्य शरण ग्रहण करने वाले के मन मन्दिर में इस प्रकार की अनन्त लीला परायण मेरी प्राणेश्वरी श्रीराधा दिनरात सेवित हों।।79।।
श्रीराधामाधव की अनंगरसोल्लासमयी चमत्कारी श्रीवृन्दावन माधुरी जिसने एक बार अपने अन्तःकरण स्वरूप में अवस्थित होकर सम्यक् प्रकार आस्वादन की है, वह शास्त्रीय एवं लौकिक समस्त धर्म चष्टाओं को त्याग कर, नाना प्रेम-विकारों के सहित उन्मत्तवत् दीखता है।।80।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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