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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
कभी कहीं जाते नहीं और कहीं से वे कभी आते नहीं, सदा नव सुन्दर यौवनयुक्त, सदा काम-रस में मग्न, असमोर्द्ध गुणों सहित माधुर्य्य की अन्तिम-सीमा को प्राप्त, स्वर्णवर्ण एवं इन्द्रनील-मणि-कांतिधारी श्रीयुगलकिशारे श्रीवृन्दावन में ही विराज रहे हैं।।34।।
अनंगरस-सीमा प्रणय-माधुर्य्य, सीमा, स्फूर्तिशील तारुण्य-द्युति (श्रीकृष्ण) तथा सुन्दरस्वरूप की सीमा, महाद्भुत काम-विलास तथा वैदग्धी की सुसीमारूप (श्रीराधा) इन दोनों के धाम (गोलोक) में किसी वनप्रान्त (श्रीवृन्दावन) में मेरा मन लगा रहे ।।35।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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