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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
सर्वदा ताड़ना-भर्त्यनादि में हंसते हुए, एक ग्रास भी अन्न न मिलने पर विषाद रहित होकर, लोगों से अति मूढ़ बालकवत् व्यवहार करते हुए निष्किंचनता को ही परम धन जानते हुए कहीं भी अपने गणों को प्रकाश न करते हुए एवं श्रीवृन्दावन के सकल चिन्मय विग्रह की प्रेमपूर्वक नमस्कार करते हुए सेवा कर ।।32।।
अन्तःकरण में अनुभव किये जाने योग्य जो पारावार रहित विमल नित्यानन्द साम्राज्य है, उसके सारघन अतिशय आस्वादनीय ज्योति के श्रेष्ठ प्रणय-रस समुद्र से उत्थित द्वीप में श्रीमद्वृन्दाटवी नवीन-नवीन सुषमा और माधुर्य्यसार समूह प्रकाश करते हुए अतीव देदीप्यामान हो रहीं है, उसमें वास कर और उस गौरनील ज्योतियुक्त श्रीयुगलकिशोर का भजन कर।।33।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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