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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
वे समस्त कलाओं में निपुणा हैं, एवं परिहास निर्माण करके और अति आश्चर्यजनक चातुरी द्वारा अपने प्राणसर्वस्व युगल-किशोर को अतिशय आनन्द दे रही हैं, सान्द्रानन्द के एकमात्र सारमय समुद्र–रस में निमग्ना उन राधा-दासियो का सब अवस्थाओं में नित्य स्मरण कर। हाय! अतिशय घोरतर आपत्ति में घिर कर भी इस देह एवं गेहादिक में जिससे तुम्हारी ‘‘अहं’’ ‘‘मम’’ बुद्धि न हो।।30।।
हे प्रिय! परम-प्रेम विलासमय सुन्दर आनन्द समूह संचारी महा प्रकष्ट आश्चर्य की परम सीमा, निर्मल आद्य (श्रृंगार) रति को यदि प्राप्त करने की इच्छा है, तो श्रीवृन्दावन का ही हर प्रकार सेर्वापर्णपूर्वक आश्रय कर, क्योंकि शुद्ध-प्रेमरस-मय वे श्रीयुगलकिशोर वहाँ ही सर्वोत्कृष्टरूप से प्रकटित हुए है।।31।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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