वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 340

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

सप्तमं शतकम्

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सर्वावस्थासु नित्यं स्मर सकल-कलापारगां नर्म्मनिर्मि-
त्यन्ताश्चर्यचातुर्यतिरमित-निजप्राणसर्वस्वयुग्माम्।
सांद्रानन्दैक-साराम्बुधि-रसवूड़ितां घोरघोरापदाम-
प्याक्रांतौ हन्त नाहं मम कृतिरिह ते गेहदेहादिकेऽस्तु।।30।।

वे समस्त कलाओं में निपुणा हैं, एवं परिहास निर्माण करके और अति आश्चर्यजनक चातुरी द्वारा अपने प्राणसर्वस्व युगल-किशोर को अतिशय आनन्द दे रही हैं, सान्द्रानन्द के एकमात्र सारमय समुद्र–रस में निमग्ना उन राधा-दासियो का सब अवस्थाओं में नित्य स्मरण कर। हाय! अतिशय घोरतर आपत्ति में घिर कर भी इस देह एवं गेहादिक में जिससे तुम्हारी ‘‘अहं’’ ‘‘मम’’ बुद्धि न हो।।30।।

यद्याद्यां रतिमिच्छसि प्रिय! परप्रेमोल्लसत्सुन्दरा-
नन्दस्यन्द-महाप्रकर्ष-चरमाश्चर्यावधिं निर्मलाम्।
श्रीवृन्दावनमेव संश्रय तदा सर्वात्मभावेन त-
च्छुद्धप्रेमरसं किशोरमिथुनं तत्रैव यद्व्यज्यते ।।31।।

हे प्रिय! परम-प्रेम विलासमय सुन्दर आनन्द समूह संचारी महा प्रकष्ट आश्चर्य की परम सीमा, निर्मल आद्य (श्रृंगार) रति को यदि प्राप्त करने की इच्छा है, तो श्रीवृन्दावन का ही हर प्रकार सेर्वापर्णपूर्वक आश्रय कर, क्योंकि शुद्ध-प्रेमरस-मय वे श्रीयुगलकिशोर वहाँ ही सर्वोत्कृष्टरूप से प्रकटित हुए है।।31।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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