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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
इस विषय में वे श्रीमन्माध्व-मतमार्तण्ड श्री हरिराम जी व्यास का पद भी प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं कि श्री प्रबोधानन्द सरस्पति पाद से इस रचना को पाकर उनकी राधा निष्ठा अथवा राधारसोपासना उन्नत हो उठी- जिन श्रीराधाबल्लभ की लीला में सब रस घोरे। केवल प्रेमविलास आस करि भवबन्धन दृढ़ तोरे। सहज माधुरी वचननि रसिक अनन्यन के चित चोरे।। श्री प्रबोधानन्द सरस्वति पाद जैसे कवि बहुत कम हैं अर्थात् विभिन्न निष्ठाओं की चरम सीमा-परक रचनाएँ इनका ही केवल वैशिष्ट्य है। और फिर इनके काव्य में जो शब्द-विन्यास, भाषा-शैली, वर्णन-सौन्दर्य भरा है वह और किसी भी कवि के काव्य में नहीं है। अतः इन जैसे कवि कोई विरले हैं। सबसे बड़ी विशेषता इनकी यह है कि इन्होंने श्री राधा वल्लभ जी की लीला में समस्त रस घोले हैं, अर्थात् श्री राधा वल्लभीय लीला चिन्तन में- उपासना में राधा नाम माधुर्य रस, राधा दास्य-रस, राधाचरणकैंकर्य रस, कुञ्जकेलि-विलास रस, वृन्दावन वास निष्ठा रस इत्यादि जितने भी रस हैं वे श्री प्रबोधानन्द सरस्वति-पाद का अवदान हैं। इन्होंने ही समस्त रसों को घोलकर उनकी लीला को सरस बना दिया है। श्री राधा कृपा रूपी प्रेम विलास के हुलास में समस्त कर्तव्य-अकर्तव्य, गुरु-अपराध, वैष्णव स्मृति उल्लंघन जनित ग्लानि आदि जितने भी बन्धनों की आशंका थी इन्होंने तोड़ डाली। विशेषतः अपनी सहज-मधुर वाणी के द्वारा रसिक अनन्यन के चित्त चुरा लिये थे। निष्पक्ष अन्वेषकों का मत है कि श्री प्रबोधानन्द की ‘सहज मधुर वाणी’- शब्द से श्री राधारस सुधानिधि तथा ‘रसिक-अनन्य’ शब्द से श्री हितहरिवंश जी भी अभिप्रेत हो सकते हैं। सम्भवतः इन समस्त कारणों वश श्री प्रबोधानन्द सरस्वति पाद को श्री हितहरिवंश जी का शिष्य बताने की भूमिका बांधी जा रही है। पहले भी ऐसी एक भ्रान्ति श्री हरिराम जी व्यास के सम्बन्ध में फैलाई जा चुकी है कि वे श्री हितहरिवंश जी के शिष्य थे। वस्तुतः श्री हितहरिवंश जी सम्वत् 1590 में श्रीवृन्दावन पधारे थे और 1609 संवत् में आपको निकुञ्जगमन हुआ। और श्री हरिराम जी व्यास ओरछा से सम्वत् 1912 में ही वृन्दावन पधारे थे, जबकि श्री हितहरिवंश जी को निकुंज पधारे तीन वर्ष हो चुके थे। श्री हरिराम व्यास जी ने अपने पिता जी से ही दीक्षा-शिक्षा प्राप्त की थी। जो श्रीमन्माध्व सम्प्रदाय के वैष्णव थे। ऐसा लगता है जिन सन्तों ने, महानुभावों ने श्री हितहरिवंश जी के प्रति अपनी रसभीनी भावनांए प्रकट कीं, कुछ सहयोग किया, उन्हीं सबको ही ऐसे लोग श्री हितहरिवंश जी का शिष्य बनाने में अपनी बुद्धि लड़ाने लगे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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