वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 27

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र

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इसी लोभ में ही यह भूमिका एक दो अ-पूर्व विद्वान तैयार कर रहे हैं कि श्री प्रबोधानन्द सरस्वती श्री हितहरिवंश जी के शिष्य हैं और वही इन रचनाओं के रचयिता हैं। अर्द्धकुक्कुटिन्यायवत् उनकी दूसरी रचनाओं को त्याग कर एक दूसरे प्रबोधानन्द सरस्वती की कल्पना कर रहे हैं।

आज तक श्री राधारस सुधानिधि को श्री हितहरिवंश गोस्वामि रचित कहने वाले जितने भी सुधी सम्पादक एवं प्रकाशक हुये हैं, उनमें किसी ने भी इस बात को कहने का साहस नहीं किया कि श्री प्रबोधानन्द सरस्वति पाद श्री हितहरिवंश जी के शिष्य थे। अतः आज के एक दो व्यक्तियों की यह कल्पना सम्भवतः गौड़ीय वैष्णवों के चिर प्रकाशित बंगला साहित्य पर आधारित मान्यताओं के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है - अन्वेषक ऐसा अनुमान करते हैं।

श्री गौड़ीय वैष्णवों का यह भी एक मत है कि श्री सरस्वति पाद ने स्वयं ही श्री हितहरिवंश जी को श्री राधा जी की साक्षात् असीम अनुकम्पा प्राप्त करने के बाद अपनी यह रचना “श्रीराधारससुधानिधि” आस्वादन के लिये प्रदान की थी। उससे पूर्व वे श्री श्रीराधा कृष्ण निष्ठ होते हुए भी कृष्ण निष्ठ प्रधान थे -

क्योंकि श्री हित चतुरासी में गौड़ीय-लीला चिन्तनानुसार श्री राधाकुण्डमिलन लीलह तथा निशान्त लीलाओं का स्पष्ट वर्णन मिलता है परकीया भाव मान तथा अभिसार का भी वर्णन मिलता है। विशेषतः गौड़ीय वैष्णवों के आराध्य देव श्री राधारमण श्री गौरश्याम आदि नामों का ही उल्लेख मिलता है, सबसे बड़ा आश्चर्य यह भी दीखता है कि श्री हितचतुरासी में एक बार भी ‘श्रीराधावल्लभ’ नाम का उल्लेख नहीं है। श्री हितहरिवंश जी अपने पुत्र को जो पत्र लिखते थे उसमें बार-बार ‘कृष्ण सुमिरन-वांचनौ’ ऐसा ही उल्लेख करते थे। श्री स्फुट वाणी में भी उनकी श्रीकृष्ण-निष्ठा का स्पष्ट दर्शन होता है-
“अष्टम राहु चतुर्थ दिवामणि तौ हरिवंश करत न शंक।
जौ पै कृष्णचरण मन अर्पित तो करि हैं कहा नवग्रह रंक।। सवैया-1
‘गोविन्द छाड़ि भ्रमत दशों दिश’-सवैया-2
“सुहरिपद भजु न विलम्ब कर”-छन्द-3
“कृष्ण भजन नह नीके”-सं. 4
“सकहि तो सब परपंच तजि कृष्ण कृष्ण गोविन्द कहि” छन्द-7
“तात भैया मेरी सौं कृष्णगुण संचु”-सं.-8
इन सब वचनों को देखकर गौड़ीय वैष्णव अपने इस मत की पुष्टि करते हैं कि श्री हितहरिवंश जी पहले कृष्ण-निष्ठा-प्रधान थे। उन्होंने अपनी चतुरासी को ‘कृष्णरसामृतसार’ कहकर वर्णन किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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