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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
इन लोगों की भ्रान्त बुद्धि केवल अन्यान्य सम्प्रदायाचार्यों के विषय में काम कर रही हो, ऐसा नहीं है बल्कि अपनी सम्प्रदाय के भी स्वरूप को वे अति आश्चर्यजनक एवं अशास्त्रीय रूप में उपस्थित कर रहे हैं, जिसका अनुमान भी कोई वैष्णव, सनातन धर्मावलम्बी नहीं कर सकता। उसे कभी भी श्री हितहरिवंश जी का अनुमोदित मत नहीं माना जा सकता, केवल उनकी व्यक्तिगत निकृष्ट धारणाओं पर ही वह आधारित दिखता है।
वे लिखते हैं - 2. उनका उपास्य समस्त महत्-पुरुषों (भक्तों) व्रज परिकरों, व्रजलीला गोविन्द्र प्रिय, श्रीनन्द-यशोदा, श्री कीर्त्ति-वृषभानु, सुबल-सुबाहु, व्रजगोपियों से यहाँ तक कि प्रकट-अप्रकट श्री वृन्दावन-धाम से सम्बन्ध रहित है, अलक्ष्य है। 3. उनका उपास्य न तुससी का राम है न कबीर का निराकार, न सूरदास का नन्दनन्दन है। वह श्री सूरदास के “बूझत श्याम कौन तू गौरी” - ऐसे-ऐसे व्रजलीला सम्बन्धी मधुर वाक्यों का भी मजाक उड़ाने का साहस करते हैं। 4. उनके उपास्य का नाम ‘राधा-कृष्ण’ भी नहीं है, उन जैसा रूप भी नहीं है। उनकी उपास्य-दम्पत्ति का किञ्चित्् सादृश्य होने से उनके आचार्यवर को मजबूरन उसका नाम ‘राधा-कृष्ण’ मानना पड़ा है। श्री नन्दनन्दन तथा श्री वृषभानुनन्दिनी उस उपास्य-दम्पत्ति का नाम तो असंगत है। क्योंकि यदि वे श्री नन्दनन्दन-वृषभानुकिशोरी को उपास्य मान लें तो उनकी उपासना सगुण हो जाती है। 5. श्री राधा-कृष्ण की जोड़ी को वे द्वापरान्त काल में प्रकट होने वाली मानते हैं! सदैव प्रकट रहने वाला नहीं। भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल में वह जोड़ी नहीं रहती, अतः उनकी वह उपास्य नहीं है। 6. उनका उपास्य षट्-भगपूर्ण भगवान् भी नहीं है। क्योंकि भगवान् में अनन्तता होती है किन्तु प्रेम का उपासक तो एक रूप का आराधक होता है। अतः उनकी प्रेमोपासना में भगवान् का कोई स्थान नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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