विषय सूचीरासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 42रासलीला का अन्तरंग-1फिर बोली- अच्छा, ले जूठा है, तो ले, ऊपर-ऊपर का जूठा गिरा देती हूँ, नीचे का पी ले। अब आप तो बड़े मर्यादावादी हैं, आप लोगों के सामने क्या सुनावें. स्वामी प्रबोधानन्द सरस्वती कहते हैं कि नाली में बहता हुआ जो कीचड़ है और कुत्ते का भी जो जूठा है, उसको भी खाकर अगर वृन्दावन में रहने को मिले, और वृन्दावन का रस हमको मिले तो भी अच्छा है। प्रबोधानन्द सरस्वती कौन? जो वेदान्तियों में अद्वैतसम्प्रदाय में एक जीववाद के, दृष्टिसृष्टिवाद के प्रमुख आचार्य हैं। स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती इनका पहले नाम था, वही स्वामी प्रबोधानन्द सरस्वती वृन्दावन को साक्षात् परब्रह्म कहते हैं। “वृन्दावन में प्रेम की नदी बहे चहुँ ओर।” तो संन्यासी ने श्रीरामकृष्णदासजी से कहा- बाबा जूठा पीते हो? महात्मा ने क्या कहा, आपको मालूम है। कहा- सूझता नहीं है तुमको? घर में रोटी नहीं है, घर में दूसरा दूध नहीं है, और अपने बच्चे के मुँह से कटोरा हटाकर हमको दूध दे रही है; नारायण! इसका प्रेम तो देखो कि बच्चे को भूखा रख रही है, और हमको दूध दे रही है। तुम मर्यादा देखते हो? तो अब देखो चलते हैं वृन्दावन में! वृन्दावन का रस दूसरा है, वृन्दावन का प्रेम दूसरा है; वह पैसों वालों का प्रेम नहीं है, वहाँ भजकलदारम् नहीं है, वह ढोंगियों का प्रेम नहीं है, वह धर्मात्माओं का प्रेम नहीं है! हाँ तो भगवान् जब वृन्दावन में पहले-पहल आये तो वृन्दावन में पहुँचने की खुशी में काम (भोग) को तो इतनी जोर से फेंका कि वह जाकर पेरिस में गिरा; और (धन) को उठाकर फेंका तो वह जाकर अमेरिका में गिरा; धर्म को फेंकने में जरा हाथ ढीला पड़ गया तो वह जाकर काशी में गिर गया; और मोक्ष को फेंक दिया हरिद्वार की ओर। यह व्रज में पहुँचने की खुशी है। भगवान् ने घर-घर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों को लुटा दिया। वृन्दावन पुरुषार्थ की जगह नहीं है, यह प्रेम की जगह है। नारायण तो आओ वृन्दावन में, जरा आप एकबार ध्यान करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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