विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमअब हम समूचे शास्त्र को ध्यान में रखकर यह बात बोल रहे हैं। धर्म पुरुषार्थ दो तरह का है: एक तो भौतिक सुख के लिए और एक आधिदैविक सुख के लिए। मरे के बाद स्वर्ग मिले इसके लिए और जीवन में हम सुखी रहें इसके लिए हैं। जीवन में सुखी रहें इसके दो विभाग हैं- (1) वासना पूरी करके सुखी होवें। (2) निर्वासन होकर सुखी होवें। धर्म दोनों में मदद करता है। तो यह जो वासना-निवारण करने का मार्ग है उसको अंतःकरण की शुद्धि कहते हैं। जब वासना की निवृत्ति होती है तो मोक्ष-मार्ग में गति होती है। अब देखो- यह जो काम पुरुषार्थ है यह जब संसार में होता है तब इसे काम कहते हैं। और बिलकुल वही वृत्ति जो पत्नी की अपने पति के प्रति होती है, वही वृत्ति जब ईश्वर के प्रति होती है तो उसका नाम प्रेम हो जाता है। इस प्रकार काम पुरुषार्थ के दो भेद हैं- एक अशुद्ध काम और एक शुद्ध काम। अशुद्ध विषय में, हड्डी-चाम आदि में जो संलग्न है, उसको अशुद्ध काम कहते हैं और परमेश्वर में जो संलग्न है उसको शुद्ध काम कहते हैं। शुद्ध काम पुरुषार्थ का नाम ही प्रीति है और अशुद्ध काम का नाम काम है। लोक में अशुद्ध काम भी होता है और शुद्ध काम भी होता है। अब यह जो भक्ति है वह कहाँ है? मोक्ष पुरुषार्थ में है कि धर्म पुरुषार्थ में है, कि काम पुरुषार्थ में है? कहते हैं कि भक्ति की गति बहुत विलक्षण है। भक्ति जहाँ तक क्रिया में है वहाँ तक धर्म है; भाव में जहाँ धर्म आया, माने धर्म अंतरंग होते ही भक्ति हो गया। और धर्म जहाँ चाँदी, सोना नोट के लिए है अर्थ के लिए है, वहाँ लौकिक है। जहाँ भगवान अर्थ हो गये वहाँ धर्म परमार्थ हो गया। इसी प्रकार काम स्त्री-पुरुष आदि के संबंध से जहाँ तक है वहाँ तक काम है, जहाँ काम भगवान से जुड़ा वहाँ प्रेम हो गया। तो नारायण!! इनकी गति जो है वह बड़ी विलक्षण है। यह भी बात है कि सामान्य रूप से ग्रंथों को कोई बाँच जाय, तो उसके ध्यान में ये बातें आती भी नहीं हैं। तो देखो- भगवान गोपियों की प्रीति को अपनी ओर खींच रहे हैं। ये काम पुरुषार्थ में भी बड़े निपुण हैं, युद्धनीति के ज्ञाता हैं, गणतंत्र के- यदुवंशियों के गणतंत्र के और कौरवों के गणतंत्र के नेता हैं। लोकतंत्र नहीं, गणतंत्र के। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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