विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-2प्रेम का बाप विश्वास और प्रेम की उपलब्धि, प्रेम का फल; प्रेम का रसीला फल, सेवा है; जिससे प्रेम होता है उसकी सेवा होती है। तो यह दास्य जो है, वह सर्व रसों के प्रकट होने का मूलस्थान है। गोपियों ने कहा कि यदि हम मूलको, जड़ को पकड़ लेंगे तो शाखा-पल्लव अपने-आपही पकड़ में आ जायेंगे। बोले-भाई, प्रत्येक वस्तु की अभिव्यक्ति का एक नियम होता है, तो तुम्हारे हृदय में दास्य रस की जो अभिव्यक्ति हुई, दास्य रस जाहिर हुआ, वह किस निमित्त से हुआ? तो बताती हैं-
इसमें पहले एक शब्द पर ध्यान देने लायक है- वीक्ष्य और विलोक्य-विलोक्य वक्षः और वीक्ष्यालकावृतमुखं। साधारण रूप से दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है वीक्ष्य माने देखकर और विलोक्य माने देखकर। तो कहा कि भाई, गोपी प्रेम में बोल रही हैं, और प्रेम के मार्ग में नेत्रों का स्थान मुख्य है, ऐसा मानते हैं; चक्षुरागस्य प्रथमम्- राग पहले आँख में से निकलता है, माने आँख से आँख पहले मिलती है। पहले दिल-दिल की प्रीति नहीं होती, पहले हाथ-हाथ की प्रीति नहीं होती, पहले आँख-आँख की प्रीति होती है। जब तक ज्ञान समान नहीं होगा, तब तक प्रेम कहाँ से आवेगा? नयनप्रीति प्रथमम्; नयन-प्रीति का अर्थ है, ज्ञान में समानता। इसी से देखो श्रीकृष्ण भगवान राधारानी से कहते हैं :
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज