विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का उदयपुरुषभूषण का यह भी अर्थ है कि तुम पुरुष-रन्न हो, तो हम भी नारी रत्न हैं; तुम पुरुषोत्तम हो, तो हम भी पुरुषोत्तमा हैं। (सम-संबंध खूब जामेगा) ‘त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मना पुरुषभूषण’- तुम्हारी ये सुन्दर मुस्कान सुन्दर रत्न है। भागवत में स्मित का सार्थक वर्णन है। सुचिरत्न देवकी मुसकराते हैं तो उनको शुचिस्मित नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि कृष्ण की मुस्कान पवित्र नहीं है। देवकी की मुस्कान तो कृष्ण को दूध पिलाने वाली है, पवित्र मुस्कान है, लेकिन कृष्ण की जो मुस्कान है वह तो महाराज लोगों का दिल-दिमाग खींच लेने के लिए है। इसलिए गोपी उन्हें सुन्दरस्मित कहती हैं। कहीं-कहीं तो गोपियां कहती हैं कि कृष्ण-रुचिर-स्मित हैं भला। देखने में तो बहुत बढ़िया मुस्कान है लेकिन इसमें कपट है तो गोपी कहती हैं कि तुम्हारी सुन्दर मुस्कान है और सुन्दर चितवन है। भगवान जिसको देखकर मुस्कराते हैं, उसको मोह लेते हैं; और जिसकी ओर देखते हैं उसके ऊपर छा जाते हैं। उनकी दृष्टि ऊपर छा जाने के लिए है, और मुस्कान मोह लेने के लिए है। हाँ, उनकी मुसकाने में शराब रहती है, और चितवन में रोशनी रहती है। कभी आप पड़ने दो ऊपर भगवान की दृष्टि; उनकी आँख से आँख मिलाओ; और उनके मुखारविन्द पर मुस्कान देखो। गोपी कहती हैं कि इसी से हमारे हृदय में तीव्र काम का उदय हुआ है। देखो, परपुरुष के प्रति जो काम है वह अधर्म है, और अपने पति के प्रति जो काम है वह अधर्म नहीं है, धर्म है; और भगवान के प्रति जो काम है वह परधर्म है। काम-वृत्ति एक ही है चित्त में, परंतु परपुरुष के प्रति काम-वृत्ति हुई तो अधर्म, अपने पति के प्रति हुई तो धर्म और भगवान के प्रति हुई तो परधर्म। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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