विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का उदयअब आगे यह बात है कि गोपी जो है वह रस की लालसा और तृप्ति है; प्यास और तृप्ति- ये दोनों गोपी के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण की प्यास लेकर श्रीकृष्ण के पास जाना और उनके लिए तृप्ति बन जाना- यह गोपी का स्वरूप है। गोपी कहती है कि यह तुम जो हमसे कहते हो कि लौट जाओ, तो कौन बोलेगा ऐसा! मिट्टी कभी कहेगी घड़े से कि तुम हमको मत मिलो? सत्ता आकार से बोलेगी कि तुम हमसे मन मिलो? स्फुरणा से कहेगा कि तुम हमसे मत मिलो? आनन्द का समुद्र तरंग से कहेगा कि तुम हमसे अलग रहो! नारायण, तो कृष्ण, प्रसीद- प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न होने का अर्थ संस्कृत भाषा में ऐसा होता है, हर्ष नहीं। हर्ष में राग होता है, प्रसाद में राग नहीं होता है। तो प्रसन्न होने का अर्थ है निर्मल; देखो, जैसे हम निष्कपट भाव से तुम्हारे पास आयी हैं, कि तुम भी निष्कपट भाव से हमसे मिलो। तन्नः प्रसीद। कृष्ण की लीला बड़ी अद्भुत है। वह प्रसाद के पहले विषाद देते हैं, पहले विषाद होवे तब प्रसाद का आनन्द आवे; पर गोपियों को यह बात मालूम नहीं है कि विषाद होने से प्रसाद का रस आता है। भगवान कहते हैं कि लौट जाओ तो भला अधिष्ठान से कोई अध्यस्त लौट जायगा? यहाँ लौटने का तो सवाल ही नहीं है। परंतु गोपी इसको समझती नहीं। इसलिए यह बोली- प्रसन्न हो जाओ। प्रसाद में तीन बातें होती हैं- विशिरण, गति और अवसादन। उपनिषद में जो षद् धातु है, प्रसाद में भी वह षद् है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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