विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्वरमण की याद दिलानागोपी बोलीं- हे चपल, बड़े चञ्चल हो, दूर हो जाओ। कृष्ण ने कहा- अच्छा, मैं चञ्चल हूँ तो मैं जाता हूँ। तो बोली- हे करुणैकसिन्धो, दया करो। दैन्य-भाव का उदय हो गया। प्रीति की रीति यही है। गोपी बोलीं- ‘करुणैकसिन्धो’ हे नाथ रमण। अरे बाबा, लौट आओ, तुम मालिक हो बाबा, यह हमारा शरीर तुम्हारा है। तुम मारो, पीटो, चाहे जो करो, अब हमारा कोई हक नहीं, हम कुछ नहीं हैं। यह सौभाग्यलक्ष्मी को कभी-कभी मिलता है कि तुम्हारे पादतल को अपनी जाँघ पर रखकर उसको सहलावें। क्यों? क्योंकि हैं- अरण्यजनप्रियस्य तुमको तो जंगली लोग प्यारे हैं। अरण्यजन माने ऋषि, महर्षि, महात्मा, तपस्वी जो वन में रहते हैं उनके बीच में तो तुम नंगे पाँव बैठे रहते हो, नंगे पाँव, नंगे बदन दौड़ते हो परंतु लक्ष्मी तो नागरी हैं ना। तुम्हें तो नागरी प्रिय नहीं है। तुम्हें तो वन में रहने वाले जो ऋषि, महात्मा, तपस्वी, त्याग वैरागी हैं, वे प्यारे हैं। लेकिन इसमें एक बहुत है- ‘रमाया क्वचित् दत्तक्षणं अरण्यजनप्रियस्य तव’ हम भी अरण्यजन हैं (वृन्दावन की हैं) अतः हम भी तुम्हारी प्यारी हैं, और तुम भी प्यारे हो। तो हमारे बीच में रहना तुमको फबता है। तुमको अच्छा लगता है, तुमको आनन्द आता है लेकिन लक्ष्मी को कभी-कभी स्पर्श का मौका देते हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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