विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्वरमण की याद दिलानागोपी ने कहा- अरे, तुम तो देव हो! ‘दीव्यति इति देवः।’ तुम घर-घर घुमते हो, तुम तो घर-घुमने हो गये, तुम तो चटोरे हो गये, कहीं माखन में लग गये, कहीं रोटी में लग गये। कृष्ण ने कहा- गोपी, अगर गाली देना है तो हम जानते हैं, और दरवाजे के बाहर हो गये। तो बड़े जोर से पुकारती है गोपी- हे कृष्ण! अरे बाबा, तुम कैसे भी हो, तुमने तो हमारे प्राण आकृष्ट कर लिए हैं। कहने का अभिप्रायः यह कि बारंबार आयें। आयें तब तो तिरस्कार करे, उपेक्षा करे और चले जायँ तो रोवे, हाथ-पाँव पीटे और बुलावें। तो प्रेम की रीति है वो, ‘अहिखिगतिः प्रेम्णः स्वभावकुटिला भवेत्’ जैसे साँप सीधे नही चलता है, कभी दाहिनी, कभी बायें, टेढ़े-मेढ़े चलता है ऐसे जो प्रेम है उसकी गति भी कुटिल है। प्रेम शक्ति है, ज्ञान शक्ति नहीं है, ज्ञान शक्ति का प्रकाशक है और प्रेम तो स्वयं शक्तिरूप है, प्रेम पंगु को पाँवाला बना देता है, अन्धे को आँखवाला बना देता है, निर्बुद्धि को चतुर बना देता है, तो प्रेम में बड़ी भारी शक्ति है। जब श्रीकृष्ण ने कहा- अरे गोपियो, तुम जाओ, अपने घर वालों के साथ हँसो-खेलो, हमारे पास क्यों आयी हो? तो आज तो यह विपरीत हो गया क्योंकि रोज गोपियाँ ऐसा करती थीं; आज कृष्ण ने ऐसा कर दिया। ‘यर्ह्म्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य’ गोपियों में दैन्य का उदय हुआ- हे देव, हे दयित, हे भुवनैकबन्धो, हे कृष्ण। अब श्रीकृष्ण ने कहा- गोपी। मैं चुम्बक हूँ और तुम लोहा हो, अगर हमारी ओर तुम खिंच आयी हो, तो इसमें हमारा क्या दोष? तो लो, हम तुम्हारे पास आते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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