विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलींप्रवृत्ति भी नहीं, निवृत्ति भी नहीं, एक समता की दशा में आ गयी। ‘शुचः श्वसनेन शुष्यद् बिम्बाधराणि’ विम्बाधर में जो ब्रह्म रस था वह सूख गया। ब्रह्म विषय का रस चला गया। ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ चरण से पृथ्वी का उल्लेख करने लगीं। कहती हैं- हे पृथ्वी, तुम फट जाओ, हम तुम्हारे अन्दर समा जायँ। पूछने लगीं कि क्या विधाता ने हमारे भाग्य में यही लिखा था? नहीं-नहीं, क्या तुम समझती हो कि हम लौट जायेंगी? प्रेम में दृढ़ता चाहिए, और परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान में जो प्रीति है उसमें भी दृढ़ता चाहिए, नहीं तो लौट जाएगा विषय की ओर। लगीं और अपने पाँव से धरती खोदने, तो क्यों? बोलीं- हम गाड़ देंगी अपने पाँव धरती में; अगर हमारा मन चंचलता करेगा, तब भी हम मानने वाली नहीं है, लौटने वाली नहीं है। ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ गोपियों ने अपने पाँव से धरती को कुरेदा और पूछा- अरी ओ धरती। क्या तुमने किसी भी कृष्णावतार में गोपियों को घर लौटते देखा है? कभी नहीं लौटते हैं तो आज भी गोपियाँ नहीं लौटेंगी। यदि श्रीकृष्ण नहीं मिले तो हमारा जन्म निष्फल है, अब मुँह में कालिख लगा लें क्या। अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुंकुमानि तस्थुर्मुजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् । कुचकुंगकुमानि गोपियों ने अपने वक्षस्थल पर केसर लगा ली थी जिसमें स्वेदजन्य दुर्गन्ध न आवे हमारे प्रियतम को! वक्षस्थल पर पसीना होने से जो दुर्गन्ध आती है उस दुर्गन्ध से हमारे प्रियतम को अरुचि न हो, इसके लिए केसर का लेप करते हैं। अब आँखों से आँसू की धारा बही, उसके साथ कज्जल प्रवाहित हुआ, और उससे वक्षस्थल पर जो केसर लगी थी वह धुलने लगी। काजल क्यों मिल गया आँसू में? ये आँसू जो हैं ना, ये हृदय की द्रवता को दिखाने के लिए हैं। पिघलता है दिल र गीली होत हैं आँखें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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