विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभनभगवान ने कहा- धर्मानुष्ठान के द्वारा अपना-अपना अंतःकरण शुद्ध करो। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भगवद्भक्ति मिलेगी, तुम्हारा कल्याण होगा, इस जन्म में अपना धर्म मत बिगाड़ो। तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः । अब यह है कि- वाचः पेशैर्विमोहयन् भगवान् की वाणी में दोनों अर्थ हैं। एक प्रकार से मजाक भी कर रहे हैं, विनोद भी कर रहे हैं, जिससे रस की वृद्धि हो। बोले- तद् यात- चली जाओ। मा चिरम्- जल्दी चली आओ और वहाँ जाकर क्या करो? देखो, यह मजाक है- शुश्रूषध्वं पतीन्- अरे बाबा! तुम लोगों के बहुत से पति हैं। पति शब्द में यहाँ बहुवचन है तो अनादिकाल से तुम संसार के प्रवाह में बह रही हो और अब तक न जाने कितने पति मिले और आगे न जाने कितने पति मिलेंगे। कहा- उनकी (ईश्वर रूप से) सेवा-शुश्रूषा करो। माने ईश्वर को भजोगी तो ईश्वर को पति के रूप में प्राप्त करोगी और फिर अनन्तकाल तक ईश्वर ही पति रहेंगे। पूर्वमीमांसा के धर्म से उत्तरमीमांसा का धर्म श्रेष्ठ है। अब दूसरा मजाक इसमें क्या निकला कि बोले- तुम्हारे जो पति हैं न, वे पहले जन्म के सती हैं। कथं भूतान् पतीन् तो सती? ये वल्लभाचार्यजी महाराज ने अर्थ किया है। सुबोधिनीकारने दोनों ही अर्थ लिखा है। बोले कि जाओ, जाओ, ये जो तुम्हारे पति हैं ये बड़े सती हैं। बोले- बाबा! सती तो स्त्री होती है, कहीं पति भी सती होता है? बोले- ये पूर्वजन्म में स्त्री थे और इन्होंने खूब पतिव्रत का पालन किया है, खूब सती रहे हैं, तब देखो, अपने पति का चिन्तन करते-करते अब ये पुरुष हो गये हैं और पति हो गये हैं। नारायण। तुम भी जाकर सती-धर्म का पालन करो तो अगले जन्म में तुम भी पुरुष हो जाओगी, त कल्याण-भाजन ही जाओगी, और फिर ये तुम्हारी स्त्री बन जाएंगे और तुम्हारा संसार-चक्र चलता रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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