विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैयह प्रश्न का अभिप्राय है। इसके उत्तर में शुकदेव जी महाराज ने कहा कि हमने दशम स्कन्ध के पहले इतनी विशाल-भूमिका तुमको सुनायी-
राजन् ! मैंने तुमको पहले बताया कि शिशुपाल को सिद्धि कैसे मिली। सातवें स्कन्ध में यह प्रसंग आया था। युधिष्ठिर ने नारद ने प्रश्न किया था। अर्थात् तुम्हारे दादा ने हमारे दादा गुरु से यह प्रश्न पूछा था। वह बात हमने तुमको सारी-की सारी सुना दी थी। उक्तं पुरस्तादेतत्ते। क्या सुनायी कि शिशुपाल के शरीर में- से निकली हुई ज्योति श्रीकृष्ण के शरीर में समा गयी। यह आश्चर्य हुआ। बोले- हाँ, महाराज, समझाया तो था। तो बोले- देखो, ज्ञान का प्रयोजन है स्वयं प्रकाश के आविर्भाव में जो प्रतिबन्धक है, आवरण है, अज्ञान है, उसको ज्ञान मिटा दे। ज्ञान का प्रयोजन भगवान के आविर्भाव में है। अरे, भगवान तो ब्रह्म हैं; आत्मा हैं; भगवान के आविर्भाव में ये ज्ञान और भक्ति तब जरूरी होते हैं, जब भगवान का स्वयं आविर्भाव न हुआ हो। और जब बिना ज्ञान के और बिना भक्ति के ही स्वयं भगवान ही प्रकट होकर आ गये हैं तो उस समय भी यदि ज्ञान भक्ति की जरूरत पड़े तो भगवान का आविर्भाव व्यर्थ। शत्रुओं का मारना, पृथ्वी का भार उतारना- यह काम तो बिना भगवान के अवतार के हो सकता था, भगवान संकल्प करें कि कंस पैदा ही न हो, शिशुपाल, दन्तवक्र पैदा ही न हों और पैदा होवें तो दुष्ट ही न बनें। अरे उनके संकल्प से ही सारा काम चल जाय। असल में भगवान का आविर्भाव दुष्टों के दमन के लिए नहीं होता, शिष्टों के पालन के लिए होता है। और फिर वे जब प्रकट होते हैं तो छुट्टी कर देते हैं। उदार आदमी के घर जब भोजन होता था तो उसमें यह नहीं देखा जाता था कि जो निमंत्रित हैं वही खायँ, निमंत्रित हैं या अनिमंत्रित जो भोजन के समय आ गया, खोल दो दरवाजा। क्या भगवान के घर में की कमी है? वह तो सबसे मिलने के लिए, सबको मुक्ति देने के लिए, सबके समान आविर्भाव के लिए आते हैं। भगवान का अवतार पुष्टि में है। जीव के भाव की, ज्ञान की उस समय अपेक्षा नहीं रहती है, जिस समय भगवान प्रकट होते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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