विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैकथश्चित् नेक्ष्यते पृथक्- भगवान तो देखते हैं कि हमारा बच्चा बहुत देर के बाद खेलकर, घूमकर, भटककर, रोककर, गाकर, कैसे भी हमारी गोद में आया। वे यह नहीं देखते कहाँ से कैसे आया- ‘कथश्चिन्नेक्ष्यते पृथक्’ कैसे भी आये, उसको पराया समझते ही नहीं है, अपना आया ही समझते हैं, अपना ही समझते हैं। द्विषन्नपि हृषीकेशंका अर्थ वल्लभाचार्यजी महाराज ने बताया है कि यह मत समझना कि कंस ने भगवान से भय किया था, शिशुपाल ने द्वेष किया, तो वे भय करने में या द्वेष करने में स्वतंत्र थे। हृषिकेशं- अरे। वही तो उनके इन्द्रियों के स्वामी हैं, जब कंस कृष्ण को गाली देता था और शिशुपाल कृष्ण को गाली देता था तब उनके हृदय में भगवान बैठे थे कि नहीं? और उनको प्रेरणा दे रहे थे कि नहीं? तो जब खुद ही अपने को गाली दे रहे थे; तो उन्हें गाली सुन करके भी खुश होना पड़ेगा कि नहीं? यह मैंने वल्लभाचार्यजी महाराज का भाव सुनाया-सुबोधिनी में जैसा है, भला! हृषिकेशम्- वही अंतःकरण को प्रेरणा देने वाले, वही इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले, वही स्वामी, वही अंतर्यामी, वही गाली दिलवा रहे हैं, वही गाली सुन रहे हैं। अब गाली की वजह से नहीं मिलेंगे तो कैस भगवान? गाली भगवत्-प्राप्ति प्रतिबन्धंक नहीं हो सकती, वही तो दिलवा रहे हैं अपने लिए। नारायण। अब देखो, मधुसूदन सरस्वती ने दूसरा ढंग लिया। उन्होंने तो इसका विवेक करने के लिए बहुत बड़ा निबंध ही लिखा है, वे कहते हैं कि परमात्मा एक है, अद्वितीय है और मिलेगा तो एक ही होगा, नहीं मिले तो बात दूसरी, पर मिलेगा तो वही का वही होगा; तो प्रेम से मिले कि द्वेष से मिले, जब मिलेगा तो वही मिलेगा। तो बोले फिर प्रेमी में, द्वेषी में कोई फर्क ही नहीं हुआ, तो क्या हुआ? जो प्रेम करेगा सो जिन्दगी भर खुश रहेगा। और मरने के बाद भी उसको प्राप्त करेगा। जब वे मिलेंगे तो मिलेंगे, इस जीवन में मिलें या अगले जन्म में मिलें। लेकिन जो दुश्मनी वह इस जीवन में दुःखी रहेगा, घुलता रहेगा और मर जायेगा तो वह मिलेगा। शिशुपाल की ज्योति समा जायेगी लेकिन शिशुपाल जब तक जिन्दा रहेगा, तब तक हाथ-पाँव पटकता रहेगा, दाँत पीसता रहेगा, चेहरा लाल रहेगा, मार डालेंगे इस ग्वाले को, जिन्दा रहते द्वेष में रहा। उन्होंने कहा तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्- बोले स्मरण तो दोनों को है, द्वेष, करने वाले को भी है; और प्रेम करने वाले को भी है; लेकिन प्रेम करने वाला स्मरण कर करके खुश होता है और द्वेष करने वाला स्मरण कर-करके जलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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