विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1किसी ने कहा कि जब तक धर्म-अर्थ-कामरूप, त्रिवर्ग की प्राप्ति न हो तब तक कर्म करो, माने फल-पर्यन्त कर्म करते रहो। अब फल मिलना तो अपने हाथ में नहीं है- ‘फलमतः उपत्तेः’- फल देने वाला ईश्वर है; पता नहीं किस जन्म में किस जन्म का फल देता है; हम इस जन्म में जो कर्म कर रहे हैं, उसका फल इसी जन्म में देगा या अगले जन्म में देगा, कि हजार जन्म के बाद देगा, उसका नियामक तो ईश्वर है। कोई फलप्राप्ति पर्यन्त अगर कर्म करेगा तो कभी कर्म से छूट नहीं सकेगा। तो बोले- भाई, इस बात को छोड़ो, अंतःकरण शुद्धि-पर्यन्त कर्म करो। अरे, अंतःकरण- शुद्धि का क्या लक्षण है? बोले- ब्रह्मज्ञान हो जाय तो अंतःकरण छोड़ दो, और जब तक न हो तब तक कर्म मत छोड़ो। नारायण, लो यह भी हाथ से गया। अच्छा, श्रीमद्भागवत में सको ऐसे बताया है- तावत्कर्माणि कुर्वीत निर्विद्येत यावता। तब तक कर्म करना चाहिए जब तक कर्म के फल से हृदय में वैराग्य न हो अथवा भगवान् कहते हैं, कि जब तक मेरी कथा सुनने में, मेरा गुणानुवाद करने में, मेरी पूजा करने में, मेरा ध्यान करने में, मुझसे प्रेम करने में, रुचि उदय न हो जाय, तब तक कर्म करना चाहिए। ये दो बातें भागवत् में कर्म की अवधि बतायी हैं- एक तो होवे संसार से वैराग्य, कर्म और कर्म फल दोनों से वैराग्य और या हो ईश्वर से प्रेम। किसी ने कहा- अच्छा भाई, फल न सही; लेकिन कर्म तो पूरा कर लें? अरे बाबा, ये कर्म कभी पूरे नहीं होते। एक ने कहा- भगवान् का भजन करेंगे कब? कि जरा बेटा बड़ा हो जाय तब। बेटा बड़ा हो गया तो बोले- ब्याह कर लें। ब्याह कर देने के बाद जरा पोते को गोद में खिला लें। अंत में बोले- अब तो शरीर में शक्ति नहीं है, अब वैराग्य लेकर क्या करेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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