योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
6. मानसिक भावों में परिवर्तन
अब वह समय आ पहुँचा है जब कोई शिक्षित मनुष्य इस बात पर विश्वास नहीं करता कि कृष्ण के आचारण वास्तव में वैसे ही थे, जैसा कृष्णलीला में दिखलाते हैं। धर्म-विषयक चाहे परस्पर कितना ही विरोध हो, पर शिक्षित मंडली अब तक उनके माथे मँढ़ती है। पुराने फैशन के पौराणिक धर्मनिष्ठा वाले भी इस यत्न में हैं कि श्रीमद्भागवत में से प्रेम और भक्ति का निचोड़ निकालें और उससे यह सिद्ध करें कि उनकी मोटी बातों की तह में पवित्र प्रेम और अमृत रूपी भक्ति के अमूल्य रत्न दबे पड़े हैं। इस प्रकार हर-एक पुरुष इस अनुसन्धान में लगा है कि उसकी वह से दुर्लभ और अमूल्य रत्न खोज निकालें और उस महात्मा के जीवन की घटनाओं को इधर-उधर से एकत्र करके जीवन चरित्र के रूप में प्रकाशित करें। यह बात प्रमाणित है कि पूर्व काल में जीवन चरित्र लिखने की परिपाटी न थी इसी से श्रीकृष्ण का कोई जीवन वृतान्त हमारे साहित्य में मौजूद नहीं है। इसलिए उनके जीवन की कहानी क्रमानुसार लिखना मानो उन कवियों के हस्तक्षेपों और विश्वासों के संग्रह से उन वास्तविक घटनाओं का सार निकालकर अलग करना है, जिनको हम युक्तिसंगत कह सकें और जिनके क्रमानुसार संग्रह को हम जीवन चरित्र की पदवी दे सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कवियों
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